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Thursday 11 December 2014

जानिए शनिवार को पीपल को क्यूँ पूजा जाता है

त्रेतायुग में एक बार बारिश के अभाव से अकाल पड़ा। तब कौशिक मुनि परिवार के लालन-पालन के लिए अपना गृहस्थान छोड़कर अन्यत्र जाने के लिए अपनी पत्नी और पुत्रों के साथ चल दिए। फिर भी परिवार का भरण-पोषण कठिन होने पर दु:खी होकर उन्होनें अपने एक पुत्र को बीच राह में ही छोड़ दिया।
वह बालक भूख-प्यास से रोने लगा। तभी उसने कुछ ही दूरी पर एक पीपल का वृक्ष और जल का कुण्ड देखा। उसने भूख शांत करने के लिए पीपल के पत्तों को खाया और कुण्ड का जल पीकर अपनी प्यास बुझाई। वह बालक प्रतिदिन इसी तरह पत्ते और पानी पीकर और तपस्या कर समय गुजारने लगा। तभी एक दिन वहां देवर्षि नारद पहुंचे। बालक ने उनको नमन किया। नारद मुनि विपरीत दशा में बालक की विनम्रता देखकर खुश हुए। उन्होंने तुरंत बालक का यथोचित संस्कार कर वेदों की शिक्षा दी। उन्होंने उसे ओम नमो भगवते वासुदेवाय की मंत्र दीक्षा भी दी।
वह बालक नित्य भगवान विष्णु के मंत्र का जप कर तप करने लगा। नारद मुनि उस बालक के साथ ही रहे। बालक की तपस्या से भगवान विष्णु प्रसन्न हुए। भगवान विष्णु ने प्रगट होकर बालक से वर मांगने को कहा। बालक ने भगवत भक्ति का वर मांगा। तब भगवान विष्णु ने बालक को योग और ज्ञान की शिक्षा दी। जिससे वह परम ज्ञानी महर्षि बन गया।
एक दिन बालक के मन में जिज्ञासा पैदा हुई। उसने नारद मुनि से पूछा कि इतनी छोटी उम्र में ही क्यों मेरे माता-पिता से अलगाव हो गया। क्यों मुझे इतनी पीड़ा भोगना पड़ रही है। आपने मुझे संस्कारित कर ब्राह्मण बनाया है। अत: मेरी पीड़ा का कारण भी बताएं। नारद मुनि ने बालक से कहा - तुमने पीपल के पत्तों को खाकर घोर तप किया है, इसलिए आज से तुम्हारा नाम पिप्पलाद रखता हूं। जहां तक तुम्हारे कष्टों की बात है, तो उसका कारण शनि ग्रह है। जिसके अहंकार वश धीमी चाल के कारण तुम्हारे साथ ही पूरा जगत भी अकाल की पीड़ा भोग रहा है।
यह सुनकर बालक ने बहुत क्रोधित हो गया। उसने आवेशित होकर जैसे ही आकाश में विचरण कर रहे शनि को देखा। तब शनि ग्रह बालक पिप्पलाद के तेजोबल से जमीन पर एक पर्वत पर आ गिरा। जिससे वह अपंग हो गया। शनि की ऐसी दुर्दशा देखकर नारद मुनि खुश हो गए। उन्होंने सभी देवी-देवताओं को यह दृश्य देखने के लिए बुलाया।
तब वहां पर ब्रह्मदेव सहित अन्य देवों ने आकर बालक पिप्पलाद के आवेश को शांत कर कहा कि नारद मुनि द्वारा रखा गया तुम्हारा नाम श्रेष्ठ है और आज से तुम पूरे जगत में इसी नाम से प्रसिद्ध होगे। जो भी व्यक्ति शनिवार के दिन पिप्पलाद नाम का ध्यान कर पूरी श्रद्धा और भावना से पूजा करेगा। उसको शनि ग्रह के कष्टों से छुटकारा मिलेगा और उसको संतान सुख भी प्राप्त होंगे।
ब्रह्मदेव ने साथ ही पिप्पलाद मुनि को शनिग्रह की शांति के लिए उनकी पूजा और व्रत का विधान बताकर कहा कि तुम धराशायी हुए शनि को अपने स्थान पर प्रतिष्ठित कर दो, क्योंकि वह निर्दोष हैं। पिप्पलाद मुनि ने भी ब्रह्मदेव के आदेश का पालन किया और उनसे शनिश्चर व्रत विधि जानकर जगत को शनि ग्रह की शांति का मार्ग बताया। इसीलिए शनि ग्रह की शांति के लिए शनिवार के दिन पीपल के वृक्ष के साथ ही शनिदेव के पूजन की परंपरा है।

क्या होता है मौत के बाद, जानें वो राज़ जो खुद यमराज ने बताए हैं


कहते हैं मौत के बाद का जीवन किसी ने नहीं देखा। इसलिए मृत्यु से जुड़ा कोई भी विषय या घटना इंसान के सामने आती है तो वह उसे जानने के लिए आतुर हो जाता है। इस विषय को लेकर उसकी यह जिज्ञासा आजीवन बनी रहती है। असल में, मृत्यु क्या है और खासतौर पर मृत्यु के बाद क्या होता है? यह जान लेना किसी भी आम इंसान के लिए मुश्किल है या यूं कहें कि मुमकिन नहीं है।

प्राचीन हिन्दू धर्मशास्त्र कठोपनिषद में मृत्यु और आत्मा से जुड़े कई रहस्य बताए गए हैं, जिसका आधार बालक नचिकेता और यमराज के बीच हुए मृत्यु से जुड़े संवाद हैं। नचिकेता वह बालक था, जिसकी पितृभक्ति और आत्म ज्ञान की जिज्ञासा के आगे मृत्यु के देवता यमराज को भी झुकना पड़ा। विलक्षण बालक नचिकेता से जुड़ा यह प्रसंग न केवल पितृभक्ति, बल्कि गुरु-शिष्य संबंधों के लिए भी बड़ी मिसाल है। 

प्रसंग के मुताबिक ऋषि वाजश्रवस (उद्दालक) नचिकेता के पिता थे। एक बार उन्होंने विश्वजीत नामक ऐसा यज्ञ किया, जिसमें सब कुछ दान कर दिया जाता है। दान के वक्त नचिकेता यह देखकर बेचैन हुआ कि पिता ने स्वस्थ गायों के बजाए कमजोर, बीमार गाएं दान कर रहें हैं। तीक्ष्ण व सात्विक बुद्धि का बालक नचिकेता ने समझ लिया कि पुत्र मोह के वशीभूत भी उनके पिता ऐसा कर रहे हैं।
मोह दूर कर धर्म-कर्म करवाने के लिए ही नचिकेता ने पिता से सवाल किया कि वे मुझे किसे देंगे। उद्दालक ऋषि ने इस सवाल को टाला, पर नचिकेता नहीं माना। उसने वही सवाल बार-बार सवाल पूछा इससे क्रोधित ऋषि ने कह दिया कि तुझे  मृत्यु (यमराज) को दूंगा। पिता को यह बोलने का दु:ख भी हुआ, लेकिन सत्य की रक्षा के लिए नचिकेता ने मृत्यु को दान करने का संकल्प पिता से पूरा करवाया।

यम के दरवाजे पर पहुंचने पर नचिकेता को पता चला कि यमराज वहां नहीं है। फिर भी उसने हार नही मानी और तीन दिन तक वहीं पर बिना खाए-पिए डटे रहे। यम ने लौटने पर द्वारपाल से नचिकेता बारे में जाना तो उस बालक की पितृभक्ति और कठोर संकल्प से बहुत खुश हुए। यमराज ने नचिकेता की पिता की आज्ञा के पालन व तीन दिन तक कठोर प्रण करने के लिए तीन वर मांगने के लिए कहा। 

तब नचिकेता ने पहला वर पिता का स्नेह मांगा। दूसरा अग्नि विद्या जानने बारे में था। तीसरा वर मृत्यु रहस्य और आत्मज्ञान को लेकर था। यम ने आखिरी वर को टालने की भरपूर कोशिश की। साथ ही, उसके बदले नचिकेता को कई सांसारिक सुख-सुविधाओं को देने का लालच दिया। नचिकेता के आत्मज्ञान जानने के इरादे इतने पक्के थे कि वह अपने सवालों पर टिका रहा। नचिकेता ने नाशवान कहकर भोग-विलास की सारी चीजों को नकार दिया और शाश्वत आत्मज्ञान पाने का रास्ता ही चुना। आखिरकार, विवश होकर यमराज को मृत्यु के रहस्य, जन्म-मृत्यु से जुड़ा आत्मज्ञान देना पड़ा।


क्या है आत्मा का स्वरूप? 
यमदेव के मुताबिक शरीर के नाश होने के साथ आत्मा का नाश नहीं होता। आत्मा का भोग-विलास, नाशवान, अनित्य और जड़ शरीर से इसका कोई लेना-देना नहीं है। यह अनन्त, अनादि और दोष रहित है। इसका कोई कारण है, न कोई कार्य यानी इसका न जन्म होता है, न मरती है। 

किस तरह शरीर से होता है ब्रह्म का ज्ञान व दर्शन?
मनुष्य शरीर दो आंखं, दो कान, दो नाक के छिद्र, एक मुंह, ब्रह्मरन्ध्र, नाभि, गुदा और शिश्न के रूप में 11 दरवाजों वाले नगर की तरह है। अविनाशी, अजन्मा, ज्ञानस्वरूप, सर्वव्यापी ब्रह्म की नगरी ही है। वे मनुष्य के ह्रदय रूपी महल में राजा की तरह रहते हैं। इस रहस्य को समझ जो मनुष्य जीते जी भगवद् ध्यान और चिन्तन करता है। वह शोक में नहीं डूबता, बल्कि शोक के कारण संसार के बंधनों से छूट जाता है। शरीर छूटने के बाद विदेह मुक्त यानी जनम-मरण के बंधन से भी मुक्त हो जाता है। उसकी यही अवस्था सर्वव्यापक ब्रह्म रूप है।

क्या आत्मा मरती या मारती है?  
आत्मा को मारने वाला या मरने वाला माने वे असल में आत्म स्वरूप को नहीं जानते और भटके हुए हैं। उनके बातों को नजरअंदाज करना चाहिए, क्योंकि आत्मा न मरती है, न किसी को मार सकती है।

क्या होते हैं आत्मा-परमात्मा से जुड़ी अज्ञानता व अज्ञानियों के परिणाम? 
जिस तरह बारिश का पानी एक ही होता है, लेकिन ऊंचे पहाड़ों की ऊबड़-खाबड़ बरसने से वह एक जगह नहीं रुकता। नीचे की और बहकर कई तरह के रंग-रुप और गंध में बदला चारों तरफ  फैलता है। उसी तरह एक ही परमात्मा से जन्में देव, असुर और मनुष्यों को जो भगवान से अलग मानता और अलग मानकर ही उनकी पूजा, उपासना करता है, उसे बारिश के जल की तरह ही सुर-असुर के लोकों और कई योनियों में भटकना पड़ता है।

कैसा है ब्रह्म का स्वरूप यानी वह कहां और कैसे प्रकट होते हैं?
ब्रह्म प्राकृतिक गुण से परे, स्वयं दिव्य प्रकाश स्वरूप अन्तरिक्ष में प्रकट होने वाले वसु नामक देवता है। वे ही अतिथि के तौर पर गृहस्थों के घरों में उपस्थित रहते हैं, यज्ञ की वेदी में पवित्र अग्रि और उसमें आहुति देने वाले होते हैं। इसी तरह सारे मनुष्यों, श्रेष्ठ देवताओं, पितरों, आकाश और सत्य में स्थित होते हैं। जल में मछली हो या शंख, पृथ्वी पर पेड़-पौधे, अंकुर, अनाज, औषधि तो पर्वतों में नदी, झरनों और यज्ञ फल के तौर पर भी ब्रह्म ही प्रकट होते हैं। इस तरह ब्रह्म प्रत्यक्ष, श्रेष्ठ और सत्य तत्व हैं।

आत्मा के जाने पर शरीर में क्या रह जाता है? 
एक शरीर से दूसरे शरीर में आने-जाने वाली जीवात्मा जब वर्तमान शरीर से निकल जाती है। उसके साथ जब प्राण व इन्द्रिय ज्ञान भी निकल जाता है, तो मृत शरीर में क्या बाकी रहता है। यह नजर तो कुछ नहीं आता, किंतु असल में वह परब्रह्म उसमें रह जाता है। हर चेतन और जड़ प्राणी व प्रकृति में सभी जगह, पूर्ण शक्ति व स्वरूप में हमेशा मौजूद होता है। 
मृत्यु के बाद जीवात्मा को क्यों और कौन सी योनियां मिलती हैं?
यमदेव के मुताबिक अच्छे और बुरे कामों और शास्त्र, गुरु, संगति, शिक्षा और व्यापार के जरिए देखे-सुने भावों से पैदा भीतरी वासनाओं के मुताबिक मरने के बाद जीवात्मा दूसरा शरीर धारण करने के लिए वीर्य के साथ माता की योनि में प्रवेश करती है। इनमें जिनके पुण्य-पाप समान होते हैं। वे मनुष्य का और जिनके पुण्य से भी ज्यादा पाप होते हैं, वे पशु-पक्षी के रूप में जन्म लेते हैं। जो बहुत ज्यादा पाप करते हैं, वे पेड़-पौधे, लता, तृण या तिनके, पहाड़ जैसी जड़ योनियों में जन्म लेते हैं। 


साभार 
दैनिक भास्कर