हम सबने एक शब्द सुना है जिसे ‘ब्रह्मचर्य’ कहते हैं| यह शब्द बना है ब्रह्म+चर्य से| ब्रह्म का अर्थ है चैतन्य या आत्मा तथा चर्य का अर्थ है आचरण में लाना या implement करना| आत्मा का आचरण कैसे किया जा सकता है क्योंकि आत्मा कोई काम तो है नहीं जिसे क्रियान्वित किया जा सके? सबसे पहले तो यह पता चले कि आत्मा है क्या! हिंदू दर्शन में ब्रह्मचर्य का सम्बन्ध पवित्रता से है| समाज में इस शब्द का अर्थ आजीवन अविवाहित रहने से दिया जाता है| आज के जमाने में कुछ व्यक्ति विवाह नहीं करते लेकिन उनके सम्बन्ध जरूर होते हैं, तो क्या वे ब्रह्मचारी कहे जायेंगे? लिव इन रिलेशन भी इसी श्रेणी में आते हैं, क्या वे भी ब्रह्मचारी कहे जायेंगे?
सबसे पहले हम जानेंगे कि आत्मा क्या है| उससे पहले यह जानना जरूरी है कि आत्मा क्या नहीं है! आत्मा कोई पुस्तक नहीं है, किसी व्यक्ति का विचार नहीं है, कोई दर्शन नहीं है, बहस का मुद्दा नहीं है, कोई धातु नहीं है, कोई पदार्थ नहीं है जिस पर शोध हो सके| यदि एल्बर्ट आइंस्टीन की मानें तो ब्रह्माण्ड दो ही चीज़ों से बना है – पदार्थ और विकिरण (matter & radiation)| अर्थात आत्मा इन दोनों में से कुछ नहीं है| अब प्रश्न यह है कि आप जिसे कानों से सुन नहीं सकते, आँखों से देख नहीं सकते, नाक से सूंघ नहीं सकते, जीभ से स्वाद नहीं ले सकते, छू नहीं सकते तो वह अस्तित्व में है भी या नहीं? इस प्रश्न का उत्तर है एक और प्रश्न जो यह पूछता है कि आप स्वयं को मरों में गिनते हैं या जिन्दा में? आप में और कुर्सी टेबल में क्या अंतर है? केवल स्वरुप का या कुछ और भी बहुत बड़ा अंतर है जो आपको जिन्दों की श्रेणी में रखता है? कुछ लोगों का उत्तर हो सकता है कि हम सोच सकते हैं इसीलिए हम जिन्दा हैं| हम अपनी पहचान खुद बता सकते हैं, इसीलिए हम जिन्दा हैं| उनके लिए एक अगला प्रश्न, यदि आप सोच सकते हैं तो वे विचार कहाँ process होते हैं? उत्तर होगा मस्तिष्क में| मस्तिष्क क्या है? मांस से बना हुआ 2-3 किलो का एक पदार्थ| यानी non living object| कोई भी ऐसी चीज़ बिना किसी ऊर्जा के स्वचालित नहीं हो सकती और आप स्वयं किसी बैटरी से नहीं चल रहे हैं, तो फिर इस मस्तिष्क के पीछे कौन है? वह क्या है जो आपको आपके होने का एहसास करा रही है? आप उसे नकार नहीं सकते क्योंकि उसको नकारते ही आपकी गिनती मरों में हो जायेगी! फिर आप में और दूसरे पदार्थों में कोई फर्क नहीं रह जायेगा| फिर पत्थर की तरह आपको पटक देने या काट देने पर आप रोने और चीखने का अधिकार खो बैठेंगे! इसका अर्थ है कि आप बस हो और आप जो भी हो उसकी सही सही व्याख्या शब्दों से कर पाना आप के बस की बात नहीं लेकिन आप हो, इसे आप महसूस कर सकते हो! जिसे आप महसूस कर रहे हो वो मांस के लोथड़े मस्तिष्क या बुद्धि से श्रेष्ठ है क्योंकि वही उसके पीछे उसे चला रहा है!
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः| मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः|| (श्रीमद्भगवदगीता ३/४२)
स्थूल शरीर (हाड़ मांस से बना हुआ) से सूक्ष्म इन्द्रियां हैं (छूने, सूंघने, सुनने, देखने, स्वाद लेने का ज्ञान)| इन्द्रियों से भी छोटा है मन जो इन सब का ज्ञान देता है और जहाँ विचार उठते हैं| इनसे भी सूक्ष्म है बुद्धि जहाँ ये informations इकट्ठी और process होती हैं| इस बुद्धि से भी जो परे है, उसे कहते हैं आत्मा! दूसरे शब्दों में कहें तो आत्मा चेतनता या चैतन्य है| यह हमारा असली स्वरुप है और यही प्राणों को धारण कर हमें प्राणी बनाती है|
आत्मा की रुपरेखा तो मिल गयी, अब चलते हैं अपने पहले सवाल की ओर जो पूछता है कि ब्रह्म का आचरण क्या चीज़ है? इस दुनिया में जीने के लिए शरीर का होना जरूरी है| अपने कर्मों को करने के लिए इस शरीर में बल का होना जरूरी है| इस बल को आप प्राण शक्ति कह सकते हैं यानी जब तक आपकी साँसें चल रही हैं, तब तक आप जीवित हैं| प्राण ही खाए हुए भोजन से शक्ति खींच कर शरीर को देता है| इस शक्ति या ऊर्जा का एक स्रोत है जो प्रजनन के लिए इस्तेमाल होता है, जिसे काम शक्ति कहते हैं| हमारी शारीरिक ऊर्जा का एक बहुत बड़ा हिस्सा होती है यह शक्ति| जिस समय यह शक्ति इकट्ठी होना बंद हो जाती है, मृत्यु आपको गले लगा लेती है! यह ऊर्जा तो एक ही है लेकिन इसको उपयोग करने के मार्ग दो हैं – एक है संसार को भौतिक गति देने से और दूसरा है संसार को आत्मिक गति देने से|
जिस तरह हमारा शरीर एक सधे हुए सिस्टम के अनुसार अपना कार्य करता है ठीक उसी प्रकार यह विश्व भी अपने एक निश्चित सिस्टम के अनुसार चल रहा है| यहाँ हर घटना पहले से तय है| इस संसार को चलाने वाली एक संकल्प शक्ति है जो यह जानती है कि अपने लक्ष्य को कैसे प्राप्त करना है और वो उसी की प्राप्ति के लिए विश्व में असंख्य घटनाक्रमों को अंजाम देती है जिसमें पाप भी शामिल है और पुण्य भी| कारक वह संकल्प शक्ति है और उसका मंच है यह विश्व जहाँ चकाचौंध है| इस विश्व में जो भी शरीर धारण करता है उसे घटनाक्रमों से गुजरना होता है| वह कर्मों में बंधता है| उसे अपना भरण पोषण करना पड़ता है| उसे दूसरों का भी भरण पोषण करना पड़ता है| इन दायित्वों के निर्वहन को भौतिक गति कहते हैं जो उस बड़ी संकल्प शक्ति का एक बहुत ही सूक्ष्म हिस्सा है| हर प्राणी को यहाँ कर्म करना पड़ता है लेकिन क्यों करना पड़ रहा है यह केवल वह संकल्प शक्ति ही जानती है! इन्हीं कर्मों में एक कर्म है प्रजनन यानी वंश आगे बढ़ाना जिसके लिए कामशक्ति चाहिए| तो यह हुआ काम ऊर्जा का भौतिक उपयोग|
हम लोग यह समझते हैं कि अपने जीवन में जो भी हम हैं, वो हम अपने संकल्पों के कारण हैं| यदि आप इसका सूक्ष्म विश्लेषण करें तो आप पाएंगे कि जीवन के हर मोड़ पर जिन परिस्थितियों ने आपको कोई निर्णय लेने पर विवश किया है (जिन निर्णयों ने आपके जीवन की दिशा बदली), वे परिस्थितियाँ कभी आपके वश में नहीं थीं बल्कि आप हमेशा उन परिस्थितियों का हिस्सा बने! यदि हम कर्म सिद्धांत की बात करें तो उसके अनुसार व्यक्ति के जीवन की परिस्थितियाँ उसके पूर्व कर्मों का परिणाम या फल होती हैं जिसका अर्थ यह हुआ कि आज जो परिस्थितियाँ आपको विवश कर रही हैं उसका बीज हमने कभी पहले बोया है| मान लीजिए कि परिस्थिति प्रतिकूल है तो आप कभी यह तो नहीं चाहेंगे कि आप प्रतिकूल स्थिति से गुजरें यानी जब आपने कोई ऐसा पूर्व कर्म किया होगा जिससे यह नौबत आई है, उस समय आपको यह नहीं पता था कि परिणाम क्या होगा! आप थोड़ा और विश्लेषण करने पर पाएंगे कि हर समय कर्म और उसके फल को ध्यान में रखने से भी काम नहीं चल सकता| जैसे, यदि आप सड़क पर गाड़ी चला रहे हैं और कोई जीव एक दम से आपकी गाड़ी से टकरा जाए तो उसका फल आपको मिलेगा| इसका अर्थ यह हुआ कि आप हमेशा से मजबूर हैं| इसका अर्थ यह हुआ कि जिसे आप अपना संकल्प सोच रहे हैं वो वास्तव में आपका एक भ्रम है क्योंकि आप परिस्थितियाँ पैदा नहीं कर रहे हैं, बल्कि परिस्थितियाँ आपको चला रही हैं और आपको नीयत निर्णय के साथ निश्चित कर्म करने की प्रेरणा दे रही हैं| उदाहरण के लिए यदि कोई गर्म चीज़ आपके हाथ पर गिर जाए तो आप हाथ को ठन्डे पानी से धोने दौड़ेंगे| धोना आपका कर्म हुआ और गर्म वस्तु का गिरना परिस्थिति और यदि वह पदार्थ ही न गिरता तो? किन्तु यह भी सच है कि जो भी हो रहा है, उसमें एक गति या symmetry है| इसका अर्थ यह हुआ कि कुछ तो है जो इसे नियंत्रित कर रहा है लेकिन किसलिए? यही है वो ब्रह्मशक्ति, आत्मा, परमात्मा, परमक्षर….
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन| नानवाप्तवाप्तव्यम् वर्त एव च कर्मणि|| (श्रीमद्भगवदगीता ३/२२)
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः| मम वत्र्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः|| (श्रीमद्भगवदगीता ३/२३)
उत्सीदेयुरिमे लोक न कुर्याम् कर्म चेदहम्| संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः|| (श्रीमद्भगवदगीता ३/२४)
भावार्थ – हे पार्थ! मेरे लिए तीनों लोकों में कोई भी ऐसा कर्म नहीं है जो करना आवश्यक हो, और न कोई ऐसा पदार्थ है जो प्राप्त होना चाहिए पर मुझे प्राप्त न हो| किन्तु फिर भी मैं कर्म में लगा रहता हूँ| (३/२२)
यदि मैं सावधान होकर कर्म में न बरतूं तो हे पार्थ! सब लोग सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुकरण कर कर्म करना ही छोड़ दें! (३/२३)
यदि मैं कर्म करना छोड़ दूं तो ये सब लोक नष्ट हो जाएँ तथा मैं संसार में अव्यवस्था फैलाने वाला बन जाऊं और इन लोगों का विनाश कर बैठूँ| (३/२४)
यह शक्ति जिस उद्देश्य से संसार को जिन परिस्थितियों से गुजार रही है, उसे समझ कर तथा उसके साथ तालमेल बिठा कर उस उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया गया कर्म ही दिव्य या आत्मिक कर्म है| इस मार्ग को समझ कर इस पर चलने वाले को योगी कहते हैं| योग का अर्थ है जोड़ जब जीवात्मा अपने जीवन को परमात्मा के उद्देश्य या परमात्मा से विलय कर लेती है| योगी बनने से पहले आत्मा से साक्षात्कार या उसके स्वरुप का सही सही बोध होना आवश्यक है| केवल आत्मा -आत्मा चिल्लाने से यह संभव नहीं होता| उसके लिए अपने एषणाओं से आगे निकलकर सत्य की अनुभूति के लिए ललक चाहिए होती है|
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः| कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुनः|| (श्रीमद्भगवदगीता ६/४६)
भावार्थ – योगी तपस्वियों से भी श्रेष्ठ है और ज्ञानियों से भी| योगी सकाम कर्म करने वालों से तो श्रेष्ठ है ही इसीलिए हे अर्जुन, तो योगी बन!
इस साक्षात्कार के अनेकों मार्ग हैं| जिसको जो सही जमे, वो उस रास्ते को पकड़ ले| अपनी काम शक्ति को ईंधन के रूप में उपयोग कर इस मार्ग पर चलते हुए ब्रह्म के उद्देश्य के साथ तालमेल बैठाने को ही आत्मिक गति कहते हैं| सरल शब्दों में कहें तो संसार में किसी बड़े सकारात्मक बदलाव को करने के लिए इस शक्ति की जरूरत होती है| इस शक्ति की रक्षा करनी पड़ती है| इसी को ब्रह्मचर्य कहते हैं| ब्रह्म के अनुसार, ब्रह्म के लिए और ब्रह्म द्वारा आचरण जिसके लिए भीषण शक्ति चाहिए क्योंकि कार्य भी उतना ही विराट है!
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