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Thursday 11 December 2014

जानिए शनिवार को पीपल को क्यूँ पूजा जाता है

त्रेतायुग में एक बार बारिश के अभाव से अकाल पड़ा। तब कौशिक मुनि परिवार के लालन-पालन के लिए अपना गृहस्थान छोड़कर अन्यत्र जाने के लिए अपनी पत्नी और पुत्रों के साथ चल दिए। फिर भी परिवार का भरण-पोषण कठिन होने पर दु:खी होकर उन्होनें अपने एक पुत्र को बीच राह में ही छोड़ दिया।
वह बालक भूख-प्यास से रोने लगा। तभी उसने कुछ ही दूरी पर एक पीपल का वृक्ष और जल का कुण्ड देखा। उसने भूख शांत करने के लिए पीपल के पत्तों को खाया और कुण्ड का जल पीकर अपनी प्यास बुझाई। वह बालक प्रतिदिन इसी तरह पत्ते और पानी पीकर और तपस्या कर समय गुजारने लगा। तभी एक दिन वहां देवर्षि नारद पहुंचे। बालक ने उनको नमन किया। नारद मुनि विपरीत दशा में बालक की विनम्रता देखकर खुश हुए। उन्होंने तुरंत बालक का यथोचित संस्कार कर वेदों की शिक्षा दी। उन्होंने उसे ओम नमो भगवते वासुदेवाय की मंत्र दीक्षा भी दी।
वह बालक नित्य भगवान विष्णु के मंत्र का जप कर तप करने लगा। नारद मुनि उस बालक के साथ ही रहे। बालक की तपस्या से भगवान विष्णु प्रसन्न हुए। भगवान विष्णु ने प्रगट होकर बालक से वर मांगने को कहा। बालक ने भगवत भक्ति का वर मांगा। तब भगवान विष्णु ने बालक को योग और ज्ञान की शिक्षा दी। जिससे वह परम ज्ञानी महर्षि बन गया।
एक दिन बालक के मन में जिज्ञासा पैदा हुई। उसने नारद मुनि से पूछा कि इतनी छोटी उम्र में ही क्यों मेरे माता-पिता से अलगाव हो गया। क्यों मुझे इतनी पीड़ा भोगना पड़ रही है। आपने मुझे संस्कारित कर ब्राह्मण बनाया है। अत: मेरी पीड़ा का कारण भी बताएं। नारद मुनि ने बालक से कहा - तुमने पीपल के पत्तों को खाकर घोर तप किया है, इसलिए आज से तुम्हारा नाम पिप्पलाद रखता हूं। जहां तक तुम्हारे कष्टों की बात है, तो उसका कारण शनि ग्रह है। जिसके अहंकार वश धीमी चाल के कारण तुम्हारे साथ ही पूरा जगत भी अकाल की पीड़ा भोग रहा है।
यह सुनकर बालक ने बहुत क्रोधित हो गया। उसने आवेशित होकर जैसे ही आकाश में विचरण कर रहे शनि को देखा। तब शनि ग्रह बालक पिप्पलाद के तेजोबल से जमीन पर एक पर्वत पर आ गिरा। जिससे वह अपंग हो गया। शनि की ऐसी दुर्दशा देखकर नारद मुनि खुश हो गए। उन्होंने सभी देवी-देवताओं को यह दृश्य देखने के लिए बुलाया।
तब वहां पर ब्रह्मदेव सहित अन्य देवों ने आकर बालक पिप्पलाद के आवेश को शांत कर कहा कि नारद मुनि द्वारा रखा गया तुम्हारा नाम श्रेष्ठ है और आज से तुम पूरे जगत में इसी नाम से प्रसिद्ध होगे। जो भी व्यक्ति शनिवार के दिन पिप्पलाद नाम का ध्यान कर पूरी श्रद्धा और भावना से पूजा करेगा। उसको शनि ग्रह के कष्टों से छुटकारा मिलेगा और उसको संतान सुख भी प्राप्त होंगे।
ब्रह्मदेव ने साथ ही पिप्पलाद मुनि को शनिग्रह की शांति के लिए उनकी पूजा और व्रत का विधान बताकर कहा कि तुम धराशायी हुए शनि को अपने स्थान पर प्रतिष्ठित कर दो, क्योंकि वह निर्दोष हैं। पिप्पलाद मुनि ने भी ब्रह्मदेव के आदेश का पालन किया और उनसे शनिश्चर व्रत विधि जानकर जगत को शनि ग्रह की शांति का मार्ग बताया। इसीलिए शनि ग्रह की शांति के लिए शनिवार के दिन पीपल के वृक्ष के साथ ही शनिदेव के पूजन की परंपरा है।

क्या होता है मौत के बाद, जानें वो राज़ जो खुद यमराज ने बताए हैं


कहते हैं मौत के बाद का जीवन किसी ने नहीं देखा। इसलिए मृत्यु से जुड़ा कोई भी विषय या घटना इंसान के सामने आती है तो वह उसे जानने के लिए आतुर हो जाता है। इस विषय को लेकर उसकी यह जिज्ञासा आजीवन बनी रहती है। असल में, मृत्यु क्या है और खासतौर पर मृत्यु के बाद क्या होता है? यह जान लेना किसी भी आम इंसान के लिए मुश्किल है या यूं कहें कि मुमकिन नहीं है।

प्राचीन हिन्दू धर्मशास्त्र कठोपनिषद में मृत्यु और आत्मा से जुड़े कई रहस्य बताए गए हैं, जिसका आधार बालक नचिकेता और यमराज के बीच हुए मृत्यु से जुड़े संवाद हैं। नचिकेता वह बालक था, जिसकी पितृभक्ति और आत्म ज्ञान की जिज्ञासा के आगे मृत्यु के देवता यमराज को भी झुकना पड़ा। विलक्षण बालक नचिकेता से जुड़ा यह प्रसंग न केवल पितृभक्ति, बल्कि गुरु-शिष्य संबंधों के लिए भी बड़ी मिसाल है। 

प्रसंग के मुताबिक ऋषि वाजश्रवस (उद्दालक) नचिकेता के पिता थे। एक बार उन्होंने विश्वजीत नामक ऐसा यज्ञ किया, जिसमें सब कुछ दान कर दिया जाता है। दान के वक्त नचिकेता यह देखकर बेचैन हुआ कि पिता ने स्वस्थ गायों के बजाए कमजोर, बीमार गाएं दान कर रहें हैं। तीक्ष्ण व सात्विक बुद्धि का बालक नचिकेता ने समझ लिया कि पुत्र मोह के वशीभूत भी उनके पिता ऐसा कर रहे हैं।
मोह दूर कर धर्म-कर्म करवाने के लिए ही नचिकेता ने पिता से सवाल किया कि वे मुझे किसे देंगे। उद्दालक ऋषि ने इस सवाल को टाला, पर नचिकेता नहीं माना। उसने वही सवाल बार-बार सवाल पूछा इससे क्रोधित ऋषि ने कह दिया कि तुझे  मृत्यु (यमराज) को दूंगा। पिता को यह बोलने का दु:ख भी हुआ, लेकिन सत्य की रक्षा के लिए नचिकेता ने मृत्यु को दान करने का संकल्प पिता से पूरा करवाया।

यम के दरवाजे पर पहुंचने पर नचिकेता को पता चला कि यमराज वहां नहीं है। फिर भी उसने हार नही मानी और तीन दिन तक वहीं पर बिना खाए-पिए डटे रहे। यम ने लौटने पर द्वारपाल से नचिकेता बारे में जाना तो उस बालक की पितृभक्ति और कठोर संकल्प से बहुत खुश हुए। यमराज ने नचिकेता की पिता की आज्ञा के पालन व तीन दिन तक कठोर प्रण करने के लिए तीन वर मांगने के लिए कहा। 

तब नचिकेता ने पहला वर पिता का स्नेह मांगा। दूसरा अग्नि विद्या जानने बारे में था। तीसरा वर मृत्यु रहस्य और आत्मज्ञान को लेकर था। यम ने आखिरी वर को टालने की भरपूर कोशिश की। साथ ही, उसके बदले नचिकेता को कई सांसारिक सुख-सुविधाओं को देने का लालच दिया। नचिकेता के आत्मज्ञान जानने के इरादे इतने पक्के थे कि वह अपने सवालों पर टिका रहा। नचिकेता ने नाशवान कहकर भोग-विलास की सारी चीजों को नकार दिया और शाश्वत आत्मज्ञान पाने का रास्ता ही चुना। आखिरकार, विवश होकर यमराज को मृत्यु के रहस्य, जन्म-मृत्यु से जुड़ा आत्मज्ञान देना पड़ा।


क्या है आत्मा का स्वरूप? 
यमदेव के मुताबिक शरीर के नाश होने के साथ आत्मा का नाश नहीं होता। आत्मा का भोग-विलास, नाशवान, अनित्य और जड़ शरीर से इसका कोई लेना-देना नहीं है। यह अनन्त, अनादि और दोष रहित है। इसका कोई कारण है, न कोई कार्य यानी इसका न जन्म होता है, न मरती है। 

किस तरह शरीर से होता है ब्रह्म का ज्ञान व दर्शन?
मनुष्य शरीर दो आंखं, दो कान, दो नाक के छिद्र, एक मुंह, ब्रह्मरन्ध्र, नाभि, गुदा और शिश्न के रूप में 11 दरवाजों वाले नगर की तरह है। अविनाशी, अजन्मा, ज्ञानस्वरूप, सर्वव्यापी ब्रह्म की नगरी ही है। वे मनुष्य के ह्रदय रूपी महल में राजा की तरह रहते हैं। इस रहस्य को समझ जो मनुष्य जीते जी भगवद् ध्यान और चिन्तन करता है। वह शोक में नहीं डूबता, बल्कि शोक के कारण संसार के बंधनों से छूट जाता है। शरीर छूटने के बाद विदेह मुक्त यानी जनम-मरण के बंधन से भी मुक्त हो जाता है। उसकी यही अवस्था सर्वव्यापक ब्रह्म रूप है।

क्या आत्मा मरती या मारती है?  
आत्मा को मारने वाला या मरने वाला माने वे असल में आत्म स्वरूप को नहीं जानते और भटके हुए हैं। उनके बातों को नजरअंदाज करना चाहिए, क्योंकि आत्मा न मरती है, न किसी को मार सकती है।

क्या होते हैं आत्मा-परमात्मा से जुड़ी अज्ञानता व अज्ञानियों के परिणाम? 
जिस तरह बारिश का पानी एक ही होता है, लेकिन ऊंचे पहाड़ों की ऊबड़-खाबड़ बरसने से वह एक जगह नहीं रुकता। नीचे की और बहकर कई तरह के रंग-रुप और गंध में बदला चारों तरफ  फैलता है। उसी तरह एक ही परमात्मा से जन्में देव, असुर और मनुष्यों को जो भगवान से अलग मानता और अलग मानकर ही उनकी पूजा, उपासना करता है, उसे बारिश के जल की तरह ही सुर-असुर के लोकों और कई योनियों में भटकना पड़ता है।

कैसा है ब्रह्म का स्वरूप यानी वह कहां और कैसे प्रकट होते हैं?
ब्रह्म प्राकृतिक गुण से परे, स्वयं दिव्य प्रकाश स्वरूप अन्तरिक्ष में प्रकट होने वाले वसु नामक देवता है। वे ही अतिथि के तौर पर गृहस्थों के घरों में उपस्थित रहते हैं, यज्ञ की वेदी में पवित्र अग्रि और उसमें आहुति देने वाले होते हैं। इसी तरह सारे मनुष्यों, श्रेष्ठ देवताओं, पितरों, आकाश और सत्य में स्थित होते हैं। जल में मछली हो या शंख, पृथ्वी पर पेड़-पौधे, अंकुर, अनाज, औषधि तो पर्वतों में नदी, झरनों और यज्ञ फल के तौर पर भी ब्रह्म ही प्रकट होते हैं। इस तरह ब्रह्म प्रत्यक्ष, श्रेष्ठ और सत्य तत्व हैं।

आत्मा के जाने पर शरीर में क्या रह जाता है? 
एक शरीर से दूसरे शरीर में आने-जाने वाली जीवात्मा जब वर्तमान शरीर से निकल जाती है। उसके साथ जब प्राण व इन्द्रिय ज्ञान भी निकल जाता है, तो मृत शरीर में क्या बाकी रहता है। यह नजर तो कुछ नहीं आता, किंतु असल में वह परब्रह्म उसमें रह जाता है। हर चेतन और जड़ प्राणी व प्रकृति में सभी जगह, पूर्ण शक्ति व स्वरूप में हमेशा मौजूद होता है। 
मृत्यु के बाद जीवात्मा को क्यों और कौन सी योनियां मिलती हैं?
यमदेव के मुताबिक अच्छे और बुरे कामों और शास्त्र, गुरु, संगति, शिक्षा और व्यापार के जरिए देखे-सुने भावों से पैदा भीतरी वासनाओं के मुताबिक मरने के बाद जीवात्मा दूसरा शरीर धारण करने के लिए वीर्य के साथ माता की योनि में प्रवेश करती है। इनमें जिनके पुण्य-पाप समान होते हैं। वे मनुष्य का और जिनके पुण्य से भी ज्यादा पाप होते हैं, वे पशु-पक्षी के रूप में जन्म लेते हैं। जो बहुत ज्यादा पाप करते हैं, वे पेड़-पौधे, लता, तृण या तिनके, पहाड़ जैसी जड़ योनियों में जन्म लेते हैं। 


साभार 
दैनिक भास्कर 

Wednesday 12 November 2014

जानिए किस देवता का वाहन क्या है और क्यों है

 हिंदू धर्म में विभिन्न देवताओं का स्वरूप अलग-अलग बताया गया है। हर देवता का स्वरूप उनके आचरण व व्यवहार के अनुरूप ही हमारे धर्म ग्रंथों में वर्णित है। स्वरूप के साथ ही देवताओं के वाहनों में विभिन्नता देखने को मिलती है। धर्म ग्रंथों के अनुसार अधिकांश देवताओं के वाहन पशु ही हैं।आप भी जानिए किस देवता का वाहन क्या है और क्यों है-  



भगवान शंकर का वाहन बैल

धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान शंकर का वाहन बैल है। बैल बहुत ही मेहनती जीव होता है। वह शक्तिशाली होने के बावजूद शांत एवं भोला होता है। वैसे ही भगवान शिव भी परमयोगी एवं शक्तिशाली होते हुए भी परम शांत एवं इतने भोले हैं कि उनका एक नाम ही भोलेनाथ जगत में प्रसिद्ध है। भगवान शंकर ने जिस तरह काम को भस्म कर उस पर विजय प्राप्त कि थी, उसी तरह उनका वाहन भी कामी नही होता। उसका काम पर पूरा नियंत्रण होता है। 




भगवान श्रीगणेश का वाहन मूषक

भगवान श्रीगणेश का वाहन है मूषक अर्थात चूहा। चूहे की विशेषता यह है कि यह हर वस्तु को कुतर डालता है। वह यह नही देखता की वस्तु आवश्यक है या अनावश्यक, कीमती है अथवा बेशकीमती। इसी प्रकार कुतर्की भी यह विचार नही करते की यह कार्य शुभ है अथवा अशुभ। अच्छा है या बुरा।
वह हर काम में कुतर्कों द्वारा व्यवधान उत्पन्न करते हैं। श्रीगणेश बुद्धि एवं ज्ञान के देवता हैं तथा कुतर्क मूषक है, जिसे गणेशजी ने अपने नीचे दबा कर अपनी सवारी बना रखा है। यह हमारे लिए भी शिक्षा है कि कुतर्कों को परे कर उनका दमन कर ज्ञान को अपनाएं।



देवी दुर्गा का वाहन शेर

शास्त्रों में देवी दुर्गा का वाहन सिंह यानी शेर बताया गया है। शेर एक संयुक्त परिवार में रहने वाला प्राणी है। वह अपने परिवार की रक्षा करने के साथ ही सामाजिक रूप से वन में रहता है। वह वन का सबसे शक्तिशाली प्राणी होता है, किंतु अपनी शक्ति को व्यर्थ में व्यय नही करता। आवश्यकता पडऩे पर ही उसका उपयोग करता है।
देवी के वाहन शेर से यह संदेश मिलता है कि घर की मुखिया स्त्री को अपने परिवार को जोड़कर रखना चाहिए तथा व्यर्थ के कार्यों में अपनी बुद्धि को न लगाकर घर को सुखी बनाने के लिए लगातार प्रयास करना चाहिए।



भगवान विष्णु का वाहन गरुड़

भगवान विष्णु का वाहन गरुड़ है। इसे पक्षियों का राजा भी कहते हैं। गरुड़ की विशेषता है कि यह आसमान में बहुत ऊंचाई पर उड़कर भी धरती के छोटे-छोटे जीवों पर नजर रख सकता है। उसमें अपरिमित शक्ति होती है। 

वैसे ही भगवान विष्णु सबका पालन करने वाले तथा प्रत्येक जीव का ध्यान रखने वाले होते हैं। उनकी नजर सदा प्रत्येक जीव पर होती है। उन पर सबकी रक्षा का भार भी है। इसलिए वह परम शक्तिशाली हैं। 




लक्ष्मी का वाहन हाथी एवं उल्लू

माता लक्ष्मी का एक वाहन सफेद रंग का हाथी है। हाथी परिवार के साथ मिल-जुलकर रहने वाला सामाजिक एवं बुद्धिमान प्राणी है। उनके परिवार में मादाओं को प्राथमिकता दी जाती है तथा सम्मान किया जाता है। हाथी हिंसक प्राणी नही होता। उसी तरह अपने परिवार वालों को एकता के साथ रखने वाला तथा अपने घर की स्त्रियों को आदर एवं सम्मान देने वालों के साथ लक्ष्मी का निवास होता है। 

लक्ष्मी का वाहन उल्लू भी होता है। उल्लू सदा क्रियाशील होता है। वह अपना पेट भरने के लिए लगातार कर्म करता रहता है। अपने कार्य को पूरी तन्मयता के साथ पूरा करता है। इसका अर्थ है कि जो व्यक्ति रात-दिन मेहनत करता है, लक्ष्मी सदा उस पर प्रसन्न होती हैं तथा स्थाई रूप से उसके घर में निवास करती हैं। 


 हनुमानजी का आसन पिशाच

हनुमानजी प्रेत या पिशाच को अपना आसन बनाकर उस पर बैठते हैं। इसी को वह अपने वाहन के रूप में भी प्रयोग करते हैं। पिशाच या प्रेत बुराई तथा दूसरों का भय एवं कष्ट देने वाले होते हैं। इसका अर्थ है कि हमें कभी भी बुराई को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिए। 








सरस्वती का वाहन हंस

मां सरस्वती का वाहन हंस है। हंस का एक गुण होता है कि उसके सामने दूध एवं पानी मिलाकर रख दें तो वह केवल दूध पी लेता हैं तथा पानी को छोड़ देता है। यानी वह सिर्फ गुण ग्रहण करता है व अवगुण छोड़ देता है। देवी सरस्वती विद्या की देवी हैं। गुण व अवगुण को पहचानना तभी संभव है, जब आप में ज्ञान हो। इसलिए माता सरस्वती का वाहन हंस है।






भगवान कार्तिकेय का वाहन मोर

भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय देवताओं के सेनापति कहे जाते हैं। इनका वाहन मोर है। धर्म ग्रंथों के अनुसार कार्तिकेय ने असुरों से युद्ध कर देवताओं को विजय दिलाई थी। अर्थात इनका युद्ध कौशल सबसे श्रेष्ठ है। अब यदि इनके वाहन मोर को देखें तो पता चलता है कि इसका मुख्य भोजन सांप है। सांप बहुत खतरनाक प्राणी है। इसलिए इसका शिकार करने के लिए बहुत ही स्फूर्ति और चतुराई की आवश्यकता होती है। इसी गुण के कारण मोर सेनापति कार्तिकेय का वाहन है।





यमराज का वाहन भैंसा

यमराज भैंसे को अपने वाहन के रूप में प्रयोग करते हैं। भैंसा भी सामाजिक प्राणी होता है। भैंसों के झुंड के सदस्य मिलकर एक-दूसरे की रक्षा करते हैं। उनका रूप भयानक होता है और उनमें शक्ति भी बहुत होती है, लेकिन वे इस शक्ति का दुरुपयोग नहीं करते। इसका अर्थ है कि यदि हम अपने परिवार के साथ मिल-जुलकर रहें तो बड़ी समस्याओं का सामना भी आसानी से कर सकते हैं। अत: यमराज उसको अपने वाहन के तौर पर प्रयोग करते हैं।








गंगा का वाहन मगर

धर्म ग्रंथों में माता गंगा का वाहन मगरमच्छ बताया गया है। इससे अभिप्राय है कि हमें जल में रहने वाले हर प्राणी की रक्षा करनी चाहिए। अपने निजी स्वार्थ के लिए इनका शिकार करना उचित नहीं है, क्योंकि जल में रहने वाला हर प्राणी पारिस्थितिक तंत्र में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इनकी अनुपस्थिति में पारिस्थितिक तंत्र बिगड़ सकता है।


Thursday 9 October 2014

रावण ने बताई थीं स्त्री स्वभाव में ये आठ खामियां..

दशहरा यानी विजयादशमी को देशभर में बुराई के प्रतीक रावण का दहन हुआ। शास्त्रों के अनुसार रावण की कई पत्नियां थीं और वह हमेशा ही सुंदर स्त्रियों से मोहित हो जाता था। सीता भी बहुत सुंदर थीं और इसी कारण रावण ने सीता का हरण किया था। श्रीरामचरित मानस के अनुसार रावण ने मंदोदरी को स्त्रियों के संबंध में कुछ बातें बताई थीं, जानिए वह बातें कौन-कौन थीं...
क्या है प्रसंग
श्रीरामचरित मानस के अनुसार जब श्रीराम वानर सेना सहित लंका पर आक्रमण के लिए समुद्र पार कर लंका पहुंच गए थे, तब रानी मंदोदरी को कई अपशकुन होते दिखाई दिए। इन अपशकुनों से मंदोदरी डर गई और वह रावण को समझाने लगी कि युद्ध ना करें और श्रीराम से क्षमा याचना करते हुए सीता को उन्हें सौंप दें। इस बात पर रावण ने मंदोदरी का मजाक बनाते हुए कहा कि-
नारि सुभाऊ सत्य सब कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीं।
साहस अनृत चपलता माया। भय अबिबेक असौच अदाया।
इस दोहे में रावण ने मंदोदरी से कहा है कि नारी के स्वभाव के विषय सभी सत्य ही कहते हैं कि अधिकांश स्त्रियों में आठ बुराइयां हमेशा रहती हैं।

रावण ने मंदोदरी को स्त्रियों की जो आठ बुराइयां बताई उसमें पहली है साहस...
रावण के अनुसार स्त्रियों में अधिक साहस होता है, जो कि कभी-कभी आवश्यकता से अधिक भी हो जाता है। इसी कारण स्त्रियां कई बार ऐसे काम कर देती हैं, जिससे बाद में उन्हें और उनके परिवार के सदस्यों को पछताना पड़ता है। रावण मंदोदरी से कहता है कि स्त्रियां यह समझ नहीं पाती हैं कि साहस का कब और कैसे सही उपयोग किया जाना चाहिए। जब साहस हद से अधिक होता है तो वह दु:साहस बन जाता है और यह हमेशा ही नुकसानदायक है।
दूसरी बुराई है माया यानी छल करना-
रावण के अनुसार स्त्रियां अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए कई प्रकार की माया रचती हैं। किसी अन्य व्यक्ति से अपने काम निकलवाने के लिए तरह-तरह के प्रलोभन देती हैं, रूठती हैं, मनाती हैं। यह सब माया है। यदि कोई पुरुष इस माया में फंस जाता है तो वह स्त्री के वश में हो जाता है। रावण मंदोदरी से कहता है कि तूने माया रचकर मेरे शत्रु राम का भय सुनाया है, ताकि मैं तेरी बातों में आ जाऊं।

तीसरी बुराई है चंचलता-
स्त्रियों का मन पुरुषों की तुलना में अधिक चंचल होता है। इसी वजह से वे किसी एक बात पर लंबे समय तक अडिग नहीं रह पाती हैं। पल-पल में स्त्रियों के विचार बदलते हैं और इसी वजह से वे अधिकांश परिस्थितियों में सही निर्णय नहीं ले पाती हैं।
चौथी बुराई है झूठ बोलना-
रावण के अनुसार स्त्रियां बात-बात पर झूठ बोलती हैं। इस आदत के कारण अक्सर इन्हें परेशानियों का भी सामना करना पड़ता है। कभी भी झूठ अधिक समय तक छिप नहीं सकता है, सच एक दिन सामने आ ही जाता है।

पांचवीं बुराई है भय यानी डरपोक होना
कभी-कभी स्त्रियां अनावश्यक रूप से भयभीत हो जाती हैं और इस वजह से उनके द्वारा कई काम बिगड़ जाते हैं। बाहरी तौर पर साहस दिखाती हैं, लेकिन इनके मन में भय होता है।
छठीं बुराई है अववेकी यानी मूर्खता
रावण कहता है कि कुछ परिस्थितियां में स्त्रियां मूर्खता पूर्ण कार्य कर देती हैं। अधिक साहस होने की वजह से और स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने के लिए ऐसे काम कर दिए जाते हैं जो कि भविष्य में मूर्खता पूर्ण सिद्ध होते हैं। यदि कोई स्त्री मूर्खता पूर्ण काम करती है तो उसके पूरे परिवार को इसकी कीमत चुकानी पड़ती है।
रावण के अनुसार सातवीं बुराई है निर्दयता यानी स्त्रियां यदि निर्दयी हो जाए तो वह कभी भी दया नहीं दिखाती है।
आठवीं बुराई है अपवित्रता यानी साफ-सफाई का अभाव।

स्त्रियों की ये आठ बुराइयां बताने के बाद रावण मंदोदरी से कहता है कि-
रिपु कर रूप सकल तैं गावा। अति बिसाल भय मोहि सुनावा।।
रावण ने मंदोदरी से कहा कि तूने मेरे सामने परम शत्रु राम का गुणगान किया है, मुझे उसका डर दिखाया है।
सो सब प्रिया सहज बस मोरें। समुझि परा प्रसाद अब तोरें।।
जानिउं प्रिया तोरि चतुराई। एहि बिधि कहहु मोरि प्रभुताई।।
इस दोहे में रावण कहता है कि हे प्रिये। यह पूरा विश्व, प्रकृति सबकुछ मेरे वश में है, इस वजह से कोई मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकता है। रावण को मंदोदरी की बातें सुनकर यह भ्रम हो गया था कि मंदोदरी उसकी तारीफ कर रही है।

तव बतकही गूढ़ मृगलोचनि। समुझत सुखद सुनत भय मोचनि।।
इसके बाद रावण कहता है कि हे मंदोदरी, तूने राम का गुणगान करके भी मेरे ही पराक्रम को महान बताया है। तेरी ये सभी मेरे भय को दूर करने वाली है।
मंदोदरि मन महुं अस ठयऊ। पियहिं काल बस मति भ्रम भयऊ।।
यह सुनकर मंदोदरी समझ गई कि उसके पति अब काल के वश हो गए हैं और इसकारण उन्हें मतिभ्रम हो रहा है।




Wednesday 8 October 2014

जानिए शिवजी की अनोखी बातें

शिव को आदि और अनंत माना गया है। कहा जाता है कि शिव निर्विकार हैं। वे भोलेनाथ हैं। इसलिए अपने भक्तों पर जल्दी प्रसन्न होते हैं। वे एक मात्र देवता हैं, जिनकी आराधना कांटों भरे फलों से की जाती है। अन्य देवता स्वर्ग में रहते हैं जबकि शिव श्मशान में रहते हैं। शिव का स्वरूप अद्भुत है, आइए जानते है शिव के स्वरूप में समाए सुख व सफल जीवन के रहस्य...
शिव के हाथ में त्रिशूल क्यों?


शिव स्वरूप में त्रिशूल अहम अंग है। त्रिशूल का शाब्दिक अर्थ है 'त्रि' यानी तीन और 'शूल' यानी कांटा। त्रिशूल धारण करने से ही भगवान शिव, शूलपाणि यानी त्रिशूल धारण करने वाले देवता के रूप में भी वंदनीय है। इसके पीछे धार्मिक दर्शन है कि त्रिशूल घातक और अचूक हथियार तो है, किंतु सांसारिक नजरिए से यह कल्याणकारी है। त्रिशूल के तीन कांटे जगत में फैले रज, तम और सत्व गुणों का प्रतीक हैं। दरअसल, इन तीन गुणों में दोष होने पर ही कर्म, विचार और स्वभाव भी विकृत होते हैं। जो सभी दैहिक, भौतिक और मानसिक पीड़ाओं का कारण बन शूल यानी कांटे की तरह चुभकर असफल जीवन का कारण बनते हैं। 


शिव के हाथों में त्रिशूल संकेत है कि महादेव इन तीन गुणों पर नियंत्रण करते हैं। शिव त्रिशूल धारण कर यही संदेश देते हैं कि इन तीन गुणों में संतुलन और समायोजन के द्वारा ही व्यक्तिगत जीवन के साथ सांसारिक जीवन में भी सुखी और समृद्ध बन सकता है।
शिव गले में क्यों पहनते हैं नागों का हार?


भगवान शिव के विराट स्वरूप की महिमा बताते शिव पञ्चाक्षरी स्त्रोत की शुरुआत में शिव को ‘नागेन्द्रहाराय’ कहकर स्तुति की गई है। जिसका सरल शब्दों में मतलब है ऐसे देवता जिनके गले में सर्प का हार है। यह शब्द शिव के दिव्य और विलक्षण चरित्र को उजागर ही नहीं करता, बल्कि जीवन से जुड़ा एक सूत्र भी सिखाता है। जानिए यह सूत्र-



शास्त्रों के मुताबिक शिव नागों के अधिपति है। दरअसल, नाग या सर्प कालरूप माना गया है। क्योंकि वह विषैला व तामसी स्वभाव का जीव है। नागों का शिव के अधीन होना यही संकेत है कि शिव तमोगुण, दोष, विकारों के नियंत्रक व संहारक हैं, जो कलह का कारण ही नहीं, बल्कि जीवन के लिये घातक भी होते हैं। इसलिए वह प्रतीक रूप में कालों के काल भी पुकारे जाते हैं और शिव भक्ति ऐसे ही दोषों का शमन करती है।
इस तरह शिव का नागों का हार पहनना व्यावहारिक जीवन के लिये भी यही संदेश देता है कि जीवन को तबाह करने वाले कलह और कड़वाहट रूपी घातक जहर से बचाना है तो मन, वचन व कर्म से द्वेष, क्रोध, काम, लोभ, मोह, मद जैसे तमोगुण व बुरी आदत रूपी नागों पर काबू रखें। सरल शब्दों में कहें तो साफ, स्वच्छ और संयम भरी जीवनशैली से जीवन को शिव की तरह निर्भय, निश्चिंत व सुखी बनाएं।


क्यों शिव धारण करते हैं चंद्रमा और वाघम्बर?


शिव चरित्र के इन प्रतीकों में भी जीवन से जुड़े उपयोगी संदेश हैं- 



चंद्रमा- भगवान शिव के सिर पर चंद्रमा विराजित है। इस चंद्रमा की चमक व उजलापन उजागर करता है शिव का चरित्र व मन भी साफ, भोला यानी निस्वार्थ, विवेकी और पवित्र है। हर भक्त को भी शिव से इसी भद्रता का सबक लेना चाहिए।
बाघम्बर -   शिव बाघ की खाल पर बैठते और धारण भी करते हैं। कहीं वह हाथी की खाल भी धारण करने वाले बताए गए हैं। इनमें संदेश यही है कि शिव की तरह हिंसा भाव व हाथी की तरह शक्ति संपन्न होने पर भी अहंकार पर विजय पाएं। 


क्या है शिव के वाहन नंदी और त्रिनेत्र से जुड़ा संदेश?


नंदी या वृषभ वाहन- पुरुषार्थ यानी धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष का प्रतीक है, जो शिव कृपा से ही साधे जाने का प्रतीक है। 
त्रिनेत्र- भगवान शिव का तीसरा नेत्र ज्ञान का प्रतीक है, जिसका खुलना अज्ञान व अविवेक का नाश करने वाला माना जाता है। शिव भक्ति के जरिए यही ज्ञान भक्त की जीवन की राह आसान बनाता है। 
क्या है डमरू  और मुण्डमाला से जुड़ी गूढ़ बात


डमरू- डमरू का नाद यानी आवाज परब्रह्म स्वरूप माना गया है। शिव का तांडव नृत्य के दौरान इसके जरिए प्रकट ब्रह्म शक्ति जगत के सारे क्लेश व अज्ञानता का नाश करने वाली मानी गई है। इसलिए भी शिव पूजा में डमरू बजाने का महत्व है। 



मुण्डमाला- शिव के गले में नरमुण्डों की माला मृत्यु या काल का उनके वश में होने का प्रतीक है। 

हर हर महादेव 


दैनिक भास्कर Oct 07, 2014


Friday 3 October 2014

जानिए अष्टांग योग के नियम

      

ध्यान से समाधि को प्राप्त करने के लिए योग के आठ अंगों से गुजरना जरुरी होता है। योग के आठ चरण अष्टांग योग कहलाते हैं। योग के आदिगुरु आचार्य पतंजलि ने स्पष्ट किया है कि बिना शरीर और मन की सफाई के समाधि की स्थिति तक पहुंचना संभव नहीं है। अगर ध्यान में गहरे उतरना चाहते हैं तो योग के इन आठ अंगों का पूरा पालन करना होगा। योग दर्शन में लिखा गया है -
    
यमनियमासनप्राणायमप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावंगानि।

अर्थात् यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि ये योग के आठ अंग हैं।

क्यों जरूरी है यम और नियम का पालन करना...

कई लोग समाधि लगाने की कोशिश करते हैं, लेकिन सफलता नहीं मिलती क्योंकि वे यम और नियम का पालन नहीं करते हैं। यम और नियम पालन करने से व्यक्ति झूठ बोलने, जोर जबरदस्ती करने, चोरी करने, कपट करने से दूर रहता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह को वश में कर लेने से उसका मन एकदम साफ व पवित्र बना रहता है। यम और नियम का पालन करे बिना ध्यान और समाधि तो दूर रही वह प्राणायाम तक ठीक से नहीं किया जा सकता है।

1- यम-  योगदर्शन के अनुसार 1- अहिंसा, 2- सत्य, 3- अस्तेय, 4- ब्रह्मचर्य, 5- अपरिग्रह इन पांचों का नाम यम है। यम का दूसरा नाम महाव्रत है।

अहिंसा- किसी दूसरे प्राणी को किसी भी प्रकार से शारीरिक नुकसान न पहुंचाना हिंसा है।

सत्य- मन में जैसा सोचा गया हो, किसी की हित की भावना में बिना चुभने वाले वाक्यों में वैसा ही कहना सत्य है।

अस्तेय- चोरी न करना।

ब्रह्मचर्य- विषय वासना से दूर रहना।

अपरिग्रह- शब्दों से, रूप से, रस से, गंध से, स्पर्श से प्रभावित न होना अपरिग्रह कहलाता है। अपरिग्रह मतलब जिसको ग्रहण न किया जाए।

2- नियम- 1- पवित्रता, 2- संतोष, 3- तप, 4- स्वाध्याय, 5- ईश्वर भक्ति ये पांचों नियम हैं।

पवित्रता- पवित्रता दो प्रकार की होती है।

बाहरी पवित्रता - शरीर की जल से शुद्धि बाहरी पवित्रता है।

आंतरिक पवित्रता- मन के दुर्गुणों को मिटा देना आंतरिक पवित्रता है।

संतोष-   सुख-दुख हर परिस्थिति में प्रसन्न बने रहने का नाम संतोष है।

स्वाध्याय- ग्रंथों का अध्ययन, अपनी पढ़ाई में लगे रहना का नाम स्वाध्याय है।

ईश्वर भक्ति- मन, वचन, कर्म से ईश्वर को मानना ईश्वर भक्ति है।
जानिए, योग के होते हैं आठ अंग, ध्यान और समाधि आते हैं सबसे आखिरी में

3- आसन- आसन मतलब बैठना। योग में आसन का अर्थ होगा सुखपूर्वक एक ही स्थिति में स्वयं को बनाए रखने वाली मुद्रा में बैठना।
आसन कई प्रकार के होते हैं। उनमें से सिद्धासन, पद्मासन प्रमुख आसन हैं, जिसमें बैठकर योग करना चाहिए।

4- प्राणायाम- प्राणायाम की क्रिया में सांसों को रोककर रखा जाता है, जिससे कि मन को स्थिर रखने की शक्ति प्राप्त होती है।

योगदर्शन में कहा गया है - ततः क्षीयते प्रकाशावरणम।

अर्थात प्राणायाम के सिद्ध हो जाने पर बुद्धि को ढकने वाले पाप का नाश हो जाता है।

5- प्रत्याहार- प्रत्याहार में इंद्रियां वश में हो जाती हैं। मन के वश में होते ही इंद्रियों पर कंट्रोल अपने आप बनने लगता है। मन का वश में रहना ही प्रत्याहार है।

6-  धारणा - मन के स्थिर हो जाने पर उसे किसी एक विषय पर स्थिर कर देना ही धारणा है। याने स्थूल या सूक्ष्म , भीतरी या बाहरी, किसी एक ही जगह मन को लगाना।

7-  ध्यान- धारणा में लगे हुए उस एक ही वस्तु में लगातार लगे रहना ही ध्यान है।

8-  समाधि- ध्यान ही समाधि हो जाता है, जब उस धारणा में लगाई हुई वस्तु की ओर ही मन रह जाता है व अपने धरती पर होने का अहसास ही नही रहता है।

Dainikbhaskar.com Oct 3, 2014, 04:17:00 PM IST


Monday 8 September 2014

पितृपक्ष पर विशेष: पिंडदान से पितरों की मुक्ति




श्राद्ध के दौरान कौवों, कुत्तों और गायों के लिए भी अंश निकालते हैं| 
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पुत्र का कर्तव्य तभी सार्थक माना जाता है, जब वह अपने जीवनकाल में माता-पिता की सेवा करे और उनके मरणोपरांत उनकी मृत्युतिथि (बरसी) तथा महालया (पितृपक्ष) में विधिवत श्राद्ध करे| 
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इस वर्ष श्राद्ध का पखवाड़ा (पितृपक्ष) नौ सितंबर से प्रारंभ हो रहा है| श्राद्ध की मूल कल्पना वैदिक दर्शन के कर्मवाद और पुनर्जन्मवाद पर आधारित है| कहा गया है कि आत्मा अमर है, जिसका नाश नहीं होता| श्राद्ध का अर्थ अपने देवताओं, पितरों और वंश के प्रति श्रद्धा प्रकट करना होता है|
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मान्यता है कि जो लोग अपना शरीर छोड़ जाते हैं, वे किसी भी लोक में या किसी भी रूप में हों, श्राद्ध पखवाड़े में पृथ्वी पर आते हैं और श्राद्ध व तर्पण से तृप्त होते हैं| हिंदू मान्यताओं के अनुसार, पिंडदान मोक्ष प्राप्ति का एक सहज और सरल मार्ग है| यों तो देश के कई स्थानों में पिंडदान किया जाता है, परंतु बिहार के फल्गु तट पर बसे गया में पिंडदान का बहुत महत्व है| कहा जाता है कि भगवान राम और देवी सीता ने भी राजा दशरथ की आत्मा की शांति के लिए गया में ही पिंडदान किया था|
महाभारत में लिखा है कि फल्गु तीर्थ में स्नान करके जो मनुष्य श्राद्धपक्ष में भगवान गदाधर (भगवान विष्णु) के दर्शन करता है, वह पितरों के ऋण से विमुक्त हो जाता है| कहा गया है कि फल्गु श्राद्ध में पिंडदान, तर्पण और ब्राह्मण भोजन-ये तीन मुख्य कार्य होते हैं| पितृपक्ष में कर्मकांड का विधि व विधान अलग-अलग है| श्रद्धालु एक दिन, तीन दिन, सात दिन, पंद्रह दिन और 17 दिन का कर्मकांड करते हैं|
गया को विष्णु का नगर माना गया है| यह मोक्ष की भूमि कहलाती है| विष्णु पुराण और वायु पुराण में भी इसकी चर्चा की गई है| विष्णु पुराण के मुताबिक, गया में पिंडदान करने से पूर्वजों को मोक्ष मिल जाता है और वे स्वर्ग में वास करते हैं| माना जाता है कि स्वयं विष्णु यहां पितृ देवता के रूप में मौजूद हैं, इसलिए इसे 'पितृ तीर्थ' भी कहा जाता है| गया के पंडा देवव्रत ने बताया कि फल्गु नदी के तट पर पिंडदान किए बिना पिंडदान हो ही नहीं सकता| पिंडदान की प्रक्रिया पुनपुन नदी के किनारे से प्रारंभ होती है|
किंवदंतियों के अनुसार, भस्मासुर के वंशज में गयासुर नामक राक्षस ने कठिन तपस्या कर ब्रह्मा से वरदान मांगा था कि उसका शरीर देवताओं की तरह पवित्र हो जाए और लोग उसके दर्शन मात्र से पाप मुक्त हो जाएं| उसे यह वरदान तो मिला, लेकिन दुष्परिणाम यह हुआ कि स्वर्ग की जनसंख्या बढ़ने लगी और सब कुछ प्राकृतिक नियम के विपरीत होने लगा, क्योंकि लोग बिना भय के पाप करने लगे और गयासुर के दर्शन से पाप मुक्त होने लगे|
इससे बचने के लिए देवताओं ने यज्ञ के लिए पवित्र स्थल की मांग गयासुर से की| गयासुर ने अपना शरीर देवताओं को यज्ञ के लिए दे दिया| दैत्य गयासुर जब लेटा तो उसका शरीर पांच कोस में फैल गया| यही पांच कोस की जगह आगे चलकर गया कहलाई| गयासुर के मन से मगर लोगों को पाप मुक्त करने की इच्छा नहीं गई और उसने देवताओं से फिर वरदान मांगा कि यह स्थान लोगों को तारने वाला बना रहे| जो भी लोग यहां पर पिंडदान करें, उनके पितरों को मुक्ति मिले. यही कारण है कि आज भी लोग अपने पितरों को तारने यानी पिंडदान के लिए गया आते हैं|
विद्वानों के मुताबिक, किसी वस्तु के गोलाकर रूप को पिंड कहा जाता है| प्रतीकात्मक रूप में शरीर को भी पिंड कहा जाता है| पिंडदान के समय मृतक के निमित्त अर्पित किए जाने वाले पदार्थ, जिसमें जौ या चावल के आंटे को गूंथकर बनाया गया गोलाकृति पिंड कहलाता है| दक्षिणाभिमुख होकर, आचमन कर अपने जनेऊ को दाएं कंधे पर रखकर चावल, गाय के दूध, घी, शक्कर एवं शहद को मिलाकर बने पिंडों को श्रद्धा भाव के साथ अपने पितरों को अर्पित करना पिंडदान कहलाता है| जल में काले तिल, जौ, कुशा एवं सफेद फूल मिलकार उस जल से विधिपूर्वक तर्पण किया जाता| मान्यता है कि इससे पितर तृप्त होते हैं| इसके बाद श्राद्ध के बाद ब्राह्मण को भोजन कराया जाता है|
पंडों के मुताबिक, शास्त्रों में पितरों का स्थान बहुत ऊंचा बताया गया है| पितरों की श्रेणी में मृत माता, पिता, दादा, दादी, नाना, नानी सहित सभी पूर्वज शामिल हैं| व्यापक दृष्टि से मृत गुरु और आचार्य भी पितरों की श्रेणी में आते हैं| कहा जाता है कि गया में पहले विभिन्न नामों की 360 वेदियां थीं जहां पिंडदान किया जाता था| इनमें से अब 48 ही बची हैं| हालांकि कई धार्मिक संस्थाएं उन पुरानी वेदियों की खोज की मांग कर रही हैं| इस समय इन्हीं 48 वेदियों पर लोग पितरों का तर्पण और पिंडदान करते हैं| यहां की वेदियों में विष्णुपद मंदिर, फल्गु नदी के किनारे और अक्षयवट के नीचे पिंडदान करना जरूरी माना जाता है|
उल्लेखनीय है कि देश में श्राद्ध के लिए हरिद्वार, गंगासागर, जगन्नाथपुरी, कुरुक्षेत्र, चित्रकूट, पुष्कर, बद्रीनाथ सहित 55 स्थानों को महत्वपूर्ण माना गया है| इनमें गया का स्थान सर्वोपरि कहा गया है| गरुड़ पुराण में कहा गया है कि गया जाने के लिए घर से निकलने पर चलने वाले एक-एक कदम पितरों के स्वर्गारोहण के लिए एक-एक सीढ़ी बनाते हैं| संन्यासी वर्ग अपना श्राद्ध अपने जीवनकाल में ही कर लेते हैं| गरुड़ पुराण और मत्स्य पुराण में वर्णित है कि श्रद्धा से अर्पित वस्तुएं पितरों को उस लोक में प्राप्त होती हैं, जिसमें वे रहते हैं| लोग श्राद्ध के दौरान कौवों, कुत्तों और गायों के लिए भी अंश निकालते हैं| मान्यता है कि कुत्ता और कौवा यम के करीबी हैं और गाय वैतरणी पार कराती है|
Vineet Verma Mon, 08 Sep 2014 
पर्दाफाश टुडे के अनुसार<< सूर्य की किरण >>


पितृदेव से जुड़े मंत्र :-
"पितृदेवाय नमः"
पितृदेव नमस्तुभ्यं वैकुण्ठलोकवासिने
पितृपक्ष: समायातः गृहाण त्वं जलांजलिम्.
भावार्थ -: वैकुण्ठ धाम मे वास करने वाले हे पितृदेव! पितृपक्ष आरम्भ हो गया है, मैं आपको जलांजलि अर्पित कर रहा हूँ, कृपया इसे ग्रहण करें.
लोके त्वं प्रथमस्त्राता दोषे पि रक्षकस्सदा
कुटुम्बे मे सुदृष्टि: स्याद्वरद एधि मे सदा.
भावार्थ -: हे पितृदेव! इस संसार मे तुम ही प्रथम रक्षा करने वाले हो, दोष (पितृदोष) होने पर भी तुम सुरक्षा प्रदान करते हो, हे पितृदेव! मेरे कुटुम्ब-परिवार पर आपकी कृपा दृष्टि हमेशा बनी रहे, आपका वरदान मेरे ऊपर हमेशा बना रहे.
भावप्रियास्त्रिदेवा हि देवताश्च हविःप्रियाः
तपः प्रियं यतीनां च पितरस्तर्पणप्रियाः.
भावार्थ -:जैसे त्रिदेव का प्रिय पदार्थ भाव है, देवताओं का प्रिय हवन सामग्री है, और ऋषियों का प्रिय तप है, उसी प्रकार पितरों को तर्पण प्रिय होता है.
श्राद्धपक्षे समायाते दीयते यो जलांजलि:
तृप्यन्ति पितरो येन तर्पणं हि तदुच्यते.
भावार्थ -: श्राद्धपक्ष आने पर जो जलांजलि दी जाती है, जिससे हमारे पितर तृप्त होते है उसे ही तर्पण कहते हैं.

Sunday 24 August 2014

दान धर्म व् उसका महत्व


           

गरुड़ पुराण में ब्रह्माजी ने दानधर्म के विषय में बताया है जो इस प्रकार है:-

सत्पात्र में श्रद्धा पूर्वक किया गया अर्थ ( भोग्यवस्तु) का प्रतिपादन दान कहलाता है| दान हम सबको इस लोक में भोग और परलोक में मोक्ष प्रदान करता है| हमें सही प्रकार व् न्यायपूर्वक ही अर्थ (भोग्यवस्तु) का उपार्जन करना चाहिए| अपनी मेहनत व् सच्चाई से अर्जित अर्थ का दान ही सफल होता है| सद्व्रत्ति  से प्राप्त धन जब सुयोग्य पात्रो. को दिया जाये वही दान कहलाता है| यह दान चार प्रकार का होता है:- नित्य, नेमित्तिक, काम्य, विमल |
फल की इच्छा न रखकर और उपकार की भावना से रहित होकर योग्य ब्राह्मण को प्रतिदिन जो दान दिया जाता है वह नित्य दान कहलाता है| अपने पापों की शांति के लिए विद्वान् ब्राह्मणों के हाथों पर जो धन दिया जाता है,सत्पुरुषों से दिया गया ऐसा दान नेमित्तिक दान कहलाता हैI संतान,विजय,ऐश्वर्य और स्वर्ग की प्राप्ति की इच्छा से किया गया दान काम्य दान कहलाता हैI ईश्वर की प्रसन्नता के लिए ब्रह्मवित्-जनों को अच्छी भावना से दिया गया दान विमल दान है I यह दान कल्याणकारी होता हैI
ईख की हरी भरी फसल से युक्त या गेहूं की फसल से संपन्न भूमि का दान वेदविद ब्राह्मणों देने से पुनर्जन्म नहीं होताI भूमिदान को श्रेष्ठ दान कहा गया है I
ब्राह्मण को विद्या प्रदान करने से ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है | जो व्यक्ति प्रतिदिन ब्रह्मचारी को श्रद्धापूर्वक विद्या प्रदान करता है वह सभी पापों से विमुक्त होकर ब्रह्मलोक के परमपद को प्राप्त करता है|
वैशाख मास की पूर्णिमा को उपवास रखकर पांच या सात ब्राह्मणों की विधिवत पूजा करके उन्हें मधु,तिल, और घृत से संतुष्ट करके उनसे ( प्रीयतां धर्मराजेती यथा मनसि वर्तते || ) (अर्थात हे धर्मराज I मेरे मन में जैसा भाव है,उसी के अनुकूल आप प्रसन्न हों |) ये मन्त्र कहलवाता है या स्वयं कहता है उसके जन्मभर किये गए सारे पाप समाप्त हो जाते हैं|
स्वर्ण, मधु एवं घी के साथ तिलों को कृष्ण-मृगचर्म में रखकर ब्राह्मण को देने सेवो व्यक्ति सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है |
वैशाखमास में घृत ,अन्न और जल का दान करने से विशेष फल प्राप्त होता है| अतः उस मॉस में धर्मराज को उद्देश्य करके घृत ,अन्न और जल का दान ब्राह्मणों को करने से सभी प्रकार के भय से मिक्ति हो जाती है| द्वादशी तिथि में स्वयं उपवास रखकर भगवान् विष्णु की पूजा करनी चाहिए| ऐसा कने से निश्चित ही मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं|
संतान प्राप्ति के लिए इन्द्रदेव का पूजन करना चाहिए| ब्रह्व्र्चर्स की कामना करने वाला व्यक्ति ब्रह्मरूप में ब्राह्मणों को स्वीकार करके उनकी पूजा करे| आरोग्य की इच्छा वाला मनुष्य सूर्य की तथा धन चाहनेवाले व्यक्ति अग्नि की पूजा करे| कार्यों में सिद्धि प्राप्त करने के लिए सगरी गणेश जी का पूजन करे| भोग की कामना होने पर चन्द्रमा की तथा बल प्राप्ति के लिए वायु की पूजा करें| तथा इस संसार से मुक्त होने के लिए प्रयत्नपूर्वक भगवान् श्रीहरी की अराधना करनी चाहिए|
जलदान से तृप्ति , अन्नदान से अक्षय सुख, तिलदान से अभीष्ट संतान, दीपदान से उत्तम नेत्र, भूमिदान से समस्त अभिलाषित पदार्थ, सुवर्णदान से दीर्घायु, गृहदान से उत्तम भवन तथा रजत दान से उत्तम रूप प्राप्त होता है| यान तथा शय्या का दान करने पर भार्या, भयभीत को अभय प्रदान करने से ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है| धन्य-दान से अविनाशी सुख और वेदके (वेदाध्यापन) दान से ब्रह्का सानिध्य लाभ होता है| वेदविद ब्राह्मण को ज्ञानोपदेश करने से स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है| गाय को घास देने से सभी पापों से मुक्ति हो जाती है| ईंधन के लिए काष्ठ आदि का दान करने से व्यक्ति प्रदीप्त अग्नि के सामान तेजस्वी हो जाता है| रोगियों के रोगशान्ति के लिए औषधि, तेल आदि पदार्थ एवं भोजन देनेवाला मनुष्य रोगरहित होकर सुखी और दीर्घायु हो जाता है तथा जो व्यक्ति परलोक में सम्पूर्ण सुख की इच्छा रखता है उसे अपनी सबसे प्रिय वस्तु  क दान किसी गुणवान ब्राह्मण को करना चाहिए ।
दान धर्म से श्रेष्ठ धर्म इस संसार में हम सब प्राणियों के लिये कोई दूसरा नहीं है। तथा हमें किसी भी व्यक्ति को गौ , ब्राह्मण , अग्नि , तथा देवों  को दिए वाले दान से नहीं रोकना चहिये।
तो आज से ही अपने तथा दूसरों की भलाई के लिए दान देना शुरू करे।


Saturday 16 August 2014

जानिए भगवान् विष्णु के 10 नहीं 22 अवतारो के बारे में

आज तक हम सबही भगवन विष्णु के १० अवतारों के बारे में ही जानते पर ये बात बहुत ही कम लोग जानते होंगे की भगवान विष्णु के १० नहीं असंख्य अवतार हैं।यहाँ आपको उनमे से कुछ अवतारों का वर्णन किया जा रहा है। गरुड़ पुराण के अनुसार एक बार महात्मा सूतजी तीर्थ यात्रा पर थे तभी वे नेमिषारान्य  आये तब वहाँ के वासी शौनकादि  मुनियो के पूछने पर श्री सूतजी ने उन्हें भगवन नारायण के अवतारों का वर्णन किया। जो इस प्रकार है।

१- भगवान् नारायण ने सबसे पहले कौमार -सर्ग में (सनत्कुमारादि के रूप मे) अवतार धारण करके कठोर तथा अखंड ब्रह्मचर्यव्रत का पालन किय।
२- दुसरे अवतार में श्री हरि  ने जगत की स्थिति के लिए ( हिरण्याक्ष  के द्वारा ) पाताल  मे ले जायी गई पृथ्वी का उद्धार करने के लिए 'वराह' - शरीर को धारण किया । ३- तीसरे अवतार में ऋषि - सर्ग में देवर्षि ( नारद ) के रूप में अवतरित होकर भगवान् ने ' सात्वत - तंत्र ' का विस्तार किया।
४- चौथे ' नरनारायण ' अवतार में धर्म की रक्षा के लिए कठोर तपस्या की और वे देवताओं तथा असुरों द्वारा पूजित हुए ।
५- पांचवे अवतार में श्रीहरि  ' कपिल ' नाम से अवतरित  हुए, जो सिद्धों में सर्वश्रेष्ठ हैं और जिन्होंने काल के प्रभाव से लुप्त हो चुके सांख्यशास्त्र  कि शिक्षा दी ।
६- छठे अवतार में महर्षि अत्री की पत्नि अनसूया के गर्भ से ' दत्त्रादेय  ' के रूप में अवतीर्ण होकर राजा अलर्क और प्रहलाद आदि को आन्विक्षी ( ब्रह्म ) विद्या का उपदेश दिया ।
७- सातवे अवतार में भगवान  नारायण ने इन्द्रादि देवगड़ के साथ यज्ञ का अनुष्ठान किया और इसी स्वायम्भुव  मन्वन्तर में वे आकूति के गर्भ से रूचि प्रजापति के पुत्ररूप में ' यज्ञदेव ' के नाम से अवतीर्ण हुए ।
८- आठवे अवतार भगवान  विष्णु नाभि एवं मेरुदेवी के पुत्ररूप में ' ऋषभदेव ' के नाम से प्रादुर्भूत हुए । इस अवतार मे  इन्होने नारीओ के आदर्श मार्ग का निदर्शन किया ( गृहस्थाश्रम मार्ग का ) जो सभी आश्रमों द्वारा नमस्कृत है ।
९- नवें  अव्तर में श्री हरी ने ऋषियों की प्रार्थना से ' पृथु ) का रूप धारण किया और गौरूपा  पृथ्वी से दुग्ध के रूप में महा औषधियों का दोहन किया । जिससे लोगों के जीवन की रक्षा हुई ।
१०- दसवे अवतार में श्री हरी ने ' मतस्य ' रूप धारण करके चाक्षुप  मन्वन्तर के बाद आने वाली प्रलय में पृथ्वी रुपी नौका में बैठाकर  वैवस्वत मनु को सुरक्षा प्रदान की ।
११ - ग्यारहवें अवतार में श्री हरी ने समुन्द्र-मंथन के समय 'कुर्म' रूप ग्रहण करके मंदराचल पर्वत को अपनी पीठ पर  धरन किया ।
१२- बारहवें में 'धन्वन्तरि' बने
१३- तेरहवें अवतार में ' मोहिनी ' के स्त्री रूप में दैत्यों को मोहित करते हुए देवताओं को अमृतपान कराया ।
१४- चोदहवें  अवतार में भगवान् विष्णु ने ' नरसिंह ' रूप में हिरन्यकश्यप  क वध किया ।
१५- पन्द्रहवें अवतार में श्री हरी भगवान् ने ' वामन ' रूप धारण करके राजा बलि के यज्ञ में गए और देवों  को तीनो लोक प्रदान करने की इच्छा से उससे तीन  पग भूमि की याचना की।
१६- सोलहवें अवतार में श्री हरी को 'परशुराम' नामक अवतार में ब्राह्मण द्रोही क्षत्रियों के अत्याचारो को देखकर उन्हें क्रोध आ गया और उसी भावावेश में आकर उन्होंने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियों से रहित कर  दिया ।
१७- सत्रहवें अवतार में पराशर द्वारा सत्यवती से 'व्यास नाम से ) अवतरित हुए और मनुष्यों की अल्पज्ञता को जानकर वेदों को अनेक शाखाओं में विभक्त किया ।
१८- अट्ठारवां अवतार अवतार श्रीराम थे ।
१९- २०- उन्नीसवें तथा बीसवें  अवतार में भगवान् विष्णु ने  ' कृष्ण ' एवम ' बलराम ' का रूप धरम करके पृथ्वी  के भार का हरण किया ।
२१- इक्कीसवें अवतार में भगवान् कलयुग की संधि के अंत में देवद्रोहिओं को मोहित करने के लिए कीकट देश में जिनपुत्र  ' बुद्ध ' के नाम से अवतीर्ण हुए।
२२- और सबसे आखिरी बाइसवें अवतार में भगवान् विष्णु कलयुग की आठवीं संध्या में अधिकाँश राजवर्ग  के समाप्त होने पर विष्णुयशा नामक ब्राह्मण के घर में ' कल्कि ' नाम से अवतार ग्रहण करेंगे व कलयुग का अंत करेंगे ।
जय श्री कृष्णा








Monday 11 August 2014

रक्षाबंधन की सबसे प्राचीन कथा -


“येन बद्धो, बलि राजा दान विन्द्रो महाबलम।
तेन-त्वाम अनुबन्धामी, रक्षे मां चला मां चलम।।“
अर्थात मैं यह रक्षा सूत्र बांध रही हूं, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार लक्ष्मी जी ने असुरराज बलि को बांधा था और अपनी रक्षा करने का वचन लिया था। इसी समय से रक्षा सूत्र बांधने का नियम बना जिसे आज भी बहन अपने भाई को कलाई पर बांधकर परंपरा को निर्वाह कर रही है। कथा इस प्रकार है कि प्रहलाद का पुत्र और हिरण्यकश्यप का पौत्र बलि महान पराक्रमी था। उसने सभी लोकों पर विजय प्राप्त कर ली। इससे देवता घबरा गए और विष्णु जी की शरण में गए| विष्णु जी ने बटुक ब्राह्मण का रूप धारण किया और बलि के द्वार की ओर चले।
असुरराज बलि विष्णु जी के अनन्य भक्त थे तथा शुक्राचार्य के शिष्य थे। जब बटुक स्वरूप विष्णु वहाँ पहुँचे तो बलि एक अनुष्ठान कर रहे थे। जैसे कि हे ब्राह्मण मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ। बटुक ने कहा मुझे तीन पग भूमि चाहिए।
महाराज बलि ने जल लेकर संकल्प किया और ‘तीन पग‘ भूमि देने को तैयार हो गए। तभी बटुक स्वरूप विष्णु अपने असली रूप में प्रकट हुए। उन्होंने दो पग में सारा ब्रह्माण्ड नाप लिया तथा तीसरा पग रखने के लिए कुछ स्थान न बचा। तभी बलि ने अपने सिर आगे कर दिया। इस प्रकार असुर को विष्णु जी ने जीत लिया और उस पर प्रसन्न हो गये। उसे पाताल में नागलोक भेज दिया। विष्णु जी बोले मैं तुम से प्रसन्न हूँ मांगों क्या मांगते हो? तब बलि ने कहा कि जब तक मैं नागलोक में रहूंगा आप मेरे द्वारपाल रहें। विष्णु जी मान गए और उसके द्वारपाल बन गए। कुछ दिन बीते लक्ष्मी जी ने विष्णु जी को ढूंढना आरंभ किया तो ज्ञात हुआ कि प्रभु तो बलि के द्वारपाल बने हैं। उन्हें एक युक्ति सूझी।
श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन उन्होंने बलि की कलाई पर एक पवित्र धागा बांधकर उसे भाई बना लिया। बलि ने भी उन्हें बहन मानते हुए कहा कि बहन मैं इस पवित्र बंधन से बहुत प्रभावित हुआ और बोला मैं तुम्हें एक वरदान देना चाहता हूं बहन! मांगो? लक्ष्मी जी को अपना उद्देश्यपूर्ण करना था, उन्होंने बताया जो तुम्हारे द्वारपाल है, वे मेरे पति हैं, उन्हें अपने घर जाने की आज्ञा दो। लक्ष्मी जी ने यह कहा कि ये ही भगवान विष्णु हैं। बलि को जब यह पता चला तो उसने तुरन्त भगवान विष्णु को उनके निवास की और रवाना किया।

[भीमकुंड] आपदा से पहले ही संकेत दे देता है ये कुंड



गुजरात में आए भूकंप के दौरान भी यहां का जलस्तर बढ़ा था। सुनामी के दौरान तो कुण्ड का जल 15 फीट ऊपर तक आ गया था।

मध्य प्रदेश का ये कुंड वैसे तो देखने में एक साधारण कुण्ड लगता है, लेकिन इसकी खासियत है कि जब भी एशियाई महाद्वीप में कोई प्राकृतिक आपदा घटने वाली होती है तो इस कुण्ड का जलस्तर पहले ही खुद-ब-खुद बढ़ने लगता है। इस कुण्ड का पुराणों में नीलकुण्ड के नाम से जिक्र है, जबकि
लोग अब इसे भीमकुण्ड के नाम से जानते हैं।
अब तक मापी नहीं जा सकी है कुंड की गहराई

भीमकुण्ड की गहराई अब तक नहीं मापी जा सकी है। कुण्ड के चमत्कारिक गुणों का पता चलते ही डिस्कवरी चैनल की एक टीम कुण्ड की गहराई मापने के लिए आई थी, लेकिन ये इतना गहरा है कि वे जितना नीचे गए उतना ही अंदर और इसका पानी दिखाई दिया। बाद में टीम वापिस लौट गई।
रोचक है इतिहास

कहते हैं अज्ञातवास के दौरान एक बार भीम को प्यास लगी, काफी तलाशने के बाद भी जब पानी नहीं मिला तो भीम ने जमीन में अपनी गदा पूरी शक्ति से मारी, जिससे इस कुण्ड से पानी निकल आया। इसलिए इसे भीमकुण्ड कहा जाता है।
भौगोलिक घटना से पहले देता है संकेत

जब भी कोई भौगोलिक घटना होने वाली होती है यहां का जलस्तर बढ़ने लगता है, जिससे क्षेत्रीय लोग प्राकृतिक आपदा का पहले ही अनुमान लगा लेते हैं। नोएडा और गुजरात में आए भूकंप के दौरान भी यहां का जलस्तर बढ़ा था। सुनामी के दौरान तो कुण्ड का जल 15 फीट ऊपर तक आ गया था।
Sunday,Aug 10,2014 जागरण के अनुसार