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Sunday, 24 August 2014

दान धर्म व् उसका महत्व


           

गरुड़ पुराण में ब्रह्माजी ने दानधर्म के विषय में बताया है जो इस प्रकार है:-

सत्पात्र में श्रद्धा पूर्वक किया गया अर्थ ( भोग्यवस्तु) का प्रतिपादन दान कहलाता है| दान हम सबको इस लोक में भोग और परलोक में मोक्ष प्रदान करता है| हमें सही प्रकार व् न्यायपूर्वक ही अर्थ (भोग्यवस्तु) का उपार्जन करना चाहिए| अपनी मेहनत व् सच्चाई से अर्जित अर्थ का दान ही सफल होता है| सद्व्रत्ति  से प्राप्त धन जब सुयोग्य पात्रो. को दिया जाये वही दान कहलाता है| यह दान चार प्रकार का होता है:- नित्य, नेमित्तिक, काम्य, विमल |
फल की इच्छा न रखकर और उपकार की भावना से रहित होकर योग्य ब्राह्मण को प्रतिदिन जो दान दिया जाता है वह नित्य दान कहलाता है| अपने पापों की शांति के लिए विद्वान् ब्राह्मणों के हाथों पर जो धन दिया जाता है,सत्पुरुषों से दिया गया ऐसा दान नेमित्तिक दान कहलाता हैI संतान,विजय,ऐश्वर्य और स्वर्ग की प्राप्ति की इच्छा से किया गया दान काम्य दान कहलाता हैI ईश्वर की प्रसन्नता के लिए ब्रह्मवित्-जनों को अच्छी भावना से दिया गया दान विमल दान है I यह दान कल्याणकारी होता हैI
ईख की हरी भरी फसल से युक्त या गेहूं की फसल से संपन्न भूमि का दान वेदविद ब्राह्मणों देने से पुनर्जन्म नहीं होताI भूमिदान को श्रेष्ठ दान कहा गया है I
ब्राह्मण को विद्या प्रदान करने से ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है | जो व्यक्ति प्रतिदिन ब्रह्मचारी को श्रद्धापूर्वक विद्या प्रदान करता है वह सभी पापों से विमुक्त होकर ब्रह्मलोक के परमपद को प्राप्त करता है|
वैशाख मास की पूर्णिमा को उपवास रखकर पांच या सात ब्राह्मणों की विधिवत पूजा करके उन्हें मधु,तिल, और घृत से संतुष्ट करके उनसे ( प्रीयतां धर्मराजेती यथा मनसि वर्तते || ) (अर्थात हे धर्मराज I मेरे मन में जैसा भाव है,उसी के अनुकूल आप प्रसन्न हों |) ये मन्त्र कहलवाता है या स्वयं कहता है उसके जन्मभर किये गए सारे पाप समाप्त हो जाते हैं|
स्वर्ण, मधु एवं घी के साथ तिलों को कृष्ण-मृगचर्म में रखकर ब्राह्मण को देने सेवो व्यक्ति सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है |
वैशाखमास में घृत ,अन्न और जल का दान करने से विशेष फल प्राप्त होता है| अतः उस मॉस में धर्मराज को उद्देश्य करके घृत ,अन्न और जल का दान ब्राह्मणों को करने से सभी प्रकार के भय से मिक्ति हो जाती है| द्वादशी तिथि में स्वयं उपवास रखकर भगवान् विष्णु की पूजा करनी चाहिए| ऐसा कने से निश्चित ही मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं|
संतान प्राप्ति के लिए इन्द्रदेव का पूजन करना चाहिए| ब्रह्व्र्चर्स की कामना करने वाला व्यक्ति ब्रह्मरूप में ब्राह्मणों को स्वीकार करके उनकी पूजा करे| आरोग्य की इच्छा वाला मनुष्य सूर्य की तथा धन चाहनेवाले व्यक्ति अग्नि की पूजा करे| कार्यों में सिद्धि प्राप्त करने के लिए सगरी गणेश जी का पूजन करे| भोग की कामना होने पर चन्द्रमा की तथा बल प्राप्ति के लिए वायु की पूजा करें| तथा इस संसार से मुक्त होने के लिए प्रयत्नपूर्वक भगवान् श्रीहरी की अराधना करनी चाहिए|
जलदान से तृप्ति , अन्नदान से अक्षय सुख, तिलदान से अभीष्ट संतान, दीपदान से उत्तम नेत्र, भूमिदान से समस्त अभिलाषित पदार्थ, सुवर्णदान से दीर्घायु, गृहदान से उत्तम भवन तथा रजत दान से उत्तम रूप प्राप्त होता है| यान तथा शय्या का दान करने पर भार्या, भयभीत को अभय प्रदान करने से ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है| धन्य-दान से अविनाशी सुख और वेदके (वेदाध्यापन) दान से ब्रह्का सानिध्य लाभ होता है| वेदविद ब्राह्मण को ज्ञानोपदेश करने से स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है| गाय को घास देने से सभी पापों से मुक्ति हो जाती है| ईंधन के लिए काष्ठ आदि का दान करने से व्यक्ति प्रदीप्त अग्नि के सामान तेजस्वी हो जाता है| रोगियों के रोगशान्ति के लिए औषधि, तेल आदि पदार्थ एवं भोजन देनेवाला मनुष्य रोगरहित होकर सुखी और दीर्घायु हो जाता है तथा जो व्यक्ति परलोक में सम्पूर्ण सुख की इच्छा रखता है उसे अपनी सबसे प्रिय वस्तु  क दान किसी गुणवान ब्राह्मण को करना चाहिए ।
दान धर्म से श्रेष्ठ धर्म इस संसार में हम सब प्राणियों के लिये कोई दूसरा नहीं है। तथा हमें किसी भी व्यक्ति को गौ , ब्राह्मण , अग्नि , तथा देवों  को दिए वाले दान से नहीं रोकना चहिये।
तो आज से ही अपने तथा दूसरों की भलाई के लिए दान देना शुरू करे।


Saturday, 16 August 2014

जानिए भगवान् विष्णु के 10 नहीं 22 अवतारो के बारे में

आज तक हम सबही भगवन विष्णु के १० अवतारों के बारे में ही जानते पर ये बात बहुत ही कम लोग जानते होंगे की भगवान विष्णु के १० नहीं असंख्य अवतार हैं।यहाँ आपको उनमे से कुछ अवतारों का वर्णन किया जा रहा है। गरुड़ पुराण के अनुसार एक बार महात्मा सूतजी तीर्थ यात्रा पर थे तभी वे नेमिषारान्य  आये तब वहाँ के वासी शौनकादि  मुनियो के पूछने पर श्री सूतजी ने उन्हें भगवन नारायण के अवतारों का वर्णन किया। जो इस प्रकार है।

१- भगवान् नारायण ने सबसे पहले कौमार -सर्ग में (सनत्कुमारादि के रूप मे) अवतार धारण करके कठोर तथा अखंड ब्रह्मचर्यव्रत का पालन किय।
२- दुसरे अवतार में श्री हरि  ने जगत की स्थिति के लिए ( हिरण्याक्ष  के द्वारा ) पाताल  मे ले जायी गई पृथ्वी का उद्धार करने के लिए 'वराह' - शरीर को धारण किया । ३- तीसरे अवतार में ऋषि - सर्ग में देवर्षि ( नारद ) के रूप में अवतरित होकर भगवान् ने ' सात्वत - तंत्र ' का विस्तार किया।
४- चौथे ' नरनारायण ' अवतार में धर्म की रक्षा के लिए कठोर तपस्या की और वे देवताओं तथा असुरों द्वारा पूजित हुए ।
५- पांचवे अवतार में श्रीहरि  ' कपिल ' नाम से अवतरित  हुए, जो सिद्धों में सर्वश्रेष्ठ हैं और जिन्होंने काल के प्रभाव से लुप्त हो चुके सांख्यशास्त्र  कि शिक्षा दी ।
६- छठे अवतार में महर्षि अत्री की पत्नि अनसूया के गर्भ से ' दत्त्रादेय  ' के रूप में अवतीर्ण होकर राजा अलर्क और प्रहलाद आदि को आन्विक्षी ( ब्रह्म ) विद्या का उपदेश दिया ।
७- सातवे अवतार में भगवान  नारायण ने इन्द्रादि देवगड़ के साथ यज्ञ का अनुष्ठान किया और इसी स्वायम्भुव  मन्वन्तर में वे आकूति के गर्भ से रूचि प्रजापति के पुत्ररूप में ' यज्ञदेव ' के नाम से अवतीर्ण हुए ।
८- आठवे अवतार भगवान  विष्णु नाभि एवं मेरुदेवी के पुत्ररूप में ' ऋषभदेव ' के नाम से प्रादुर्भूत हुए । इस अवतार मे  इन्होने नारीओ के आदर्श मार्ग का निदर्शन किया ( गृहस्थाश्रम मार्ग का ) जो सभी आश्रमों द्वारा नमस्कृत है ।
९- नवें  अव्तर में श्री हरी ने ऋषियों की प्रार्थना से ' पृथु ) का रूप धारण किया और गौरूपा  पृथ्वी से दुग्ध के रूप में महा औषधियों का दोहन किया । जिससे लोगों के जीवन की रक्षा हुई ।
१०- दसवे अवतार में श्री हरी ने ' मतस्य ' रूप धारण करके चाक्षुप  मन्वन्तर के बाद आने वाली प्रलय में पृथ्वी रुपी नौका में बैठाकर  वैवस्वत मनु को सुरक्षा प्रदान की ।
११ - ग्यारहवें अवतार में श्री हरी ने समुन्द्र-मंथन के समय 'कुर्म' रूप ग्रहण करके मंदराचल पर्वत को अपनी पीठ पर  धरन किया ।
१२- बारहवें में 'धन्वन्तरि' बने
१३- तेरहवें अवतार में ' मोहिनी ' के स्त्री रूप में दैत्यों को मोहित करते हुए देवताओं को अमृतपान कराया ।
१४- चोदहवें  अवतार में भगवान् विष्णु ने ' नरसिंह ' रूप में हिरन्यकश्यप  क वध किया ।
१५- पन्द्रहवें अवतार में श्री हरी भगवान् ने ' वामन ' रूप धारण करके राजा बलि के यज्ञ में गए और देवों  को तीनो लोक प्रदान करने की इच्छा से उससे तीन  पग भूमि की याचना की।
१६- सोलहवें अवतार में श्री हरी को 'परशुराम' नामक अवतार में ब्राह्मण द्रोही क्षत्रियों के अत्याचारो को देखकर उन्हें क्रोध आ गया और उसी भावावेश में आकर उन्होंने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियों से रहित कर  दिया ।
१७- सत्रहवें अवतार में पराशर द्वारा सत्यवती से 'व्यास नाम से ) अवतरित हुए और मनुष्यों की अल्पज्ञता को जानकर वेदों को अनेक शाखाओं में विभक्त किया ।
१८- अट्ठारवां अवतार अवतार श्रीराम थे ।
१९- २०- उन्नीसवें तथा बीसवें  अवतार में भगवान् विष्णु ने  ' कृष्ण ' एवम ' बलराम ' का रूप धरम करके पृथ्वी  के भार का हरण किया ।
२१- इक्कीसवें अवतार में भगवान् कलयुग की संधि के अंत में देवद्रोहिओं को मोहित करने के लिए कीकट देश में जिनपुत्र  ' बुद्ध ' के नाम से अवतीर्ण हुए।
२२- और सबसे आखिरी बाइसवें अवतार में भगवान् विष्णु कलयुग की आठवीं संध्या में अधिकाँश राजवर्ग  के समाप्त होने पर विष्णुयशा नामक ब्राह्मण के घर में ' कल्कि ' नाम से अवतार ग्रहण करेंगे व कलयुग का अंत करेंगे ।
जय श्री कृष्णा








Monday, 11 August 2014

रक्षाबंधन की सबसे प्राचीन कथा -


“येन बद्धो, बलि राजा दान विन्द्रो महाबलम।
तेन-त्वाम अनुबन्धामी, रक्षे मां चला मां चलम।।“
अर्थात मैं यह रक्षा सूत्र बांध रही हूं, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार लक्ष्मी जी ने असुरराज बलि को बांधा था और अपनी रक्षा करने का वचन लिया था। इसी समय से रक्षा सूत्र बांधने का नियम बना जिसे आज भी बहन अपने भाई को कलाई पर बांधकर परंपरा को निर्वाह कर रही है। कथा इस प्रकार है कि प्रहलाद का पुत्र और हिरण्यकश्यप का पौत्र बलि महान पराक्रमी था। उसने सभी लोकों पर विजय प्राप्त कर ली। इससे देवता घबरा गए और विष्णु जी की शरण में गए| विष्णु जी ने बटुक ब्राह्मण का रूप धारण किया और बलि के द्वार की ओर चले।
असुरराज बलि विष्णु जी के अनन्य भक्त थे तथा शुक्राचार्य के शिष्य थे। जब बटुक स्वरूप विष्णु वहाँ पहुँचे तो बलि एक अनुष्ठान कर रहे थे। जैसे कि हे ब्राह्मण मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ। बटुक ने कहा मुझे तीन पग भूमि चाहिए।
महाराज बलि ने जल लेकर संकल्प किया और ‘तीन पग‘ भूमि देने को तैयार हो गए। तभी बटुक स्वरूप विष्णु अपने असली रूप में प्रकट हुए। उन्होंने दो पग में सारा ब्रह्माण्ड नाप लिया तथा तीसरा पग रखने के लिए कुछ स्थान न बचा। तभी बलि ने अपने सिर आगे कर दिया। इस प्रकार असुर को विष्णु जी ने जीत लिया और उस पर प्रसन्न हो गये। उसे पाताल में नागलोक भेज दिया। विष्णु जी बोले मैं तुम से प्रसन्न हूँ मांगों क्या मांगते हो? तब बलि ने कहा कि जब तक मैं नागलोक में रहूंगा आप मेरे द्वारपाल रहें। विष्णु जी मान गए और उसके द्वारपाल बन गए। कुछ दिन बीते लक्ष्मी जी ने विष्णु जी को ढूंढना आरंभ किया तो ज्ञात हुआ कि प्रभु तो बलि के द्वारपाल बने हैं। उन्हें एक युक्ति सूझी।
श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन उन्होंने बलि की कलाई पर एक पवित्र धागा बांधकर उसे भाई बना लिया। बलि ने भी उन्हें बहन मानते हुए कहा कि बहन मैं इस पवित्र बंधन से बहुत प्रभावित हुआ और बोला मैं तुम्हें एक वरदान देना चाहता हूं बहन! मांगो? लक्ष्मी जी को अपना उद्देश्यपूर्ण करना था, उन्होंने बताया जो तुम्हारे द्वारपाल है, वे मेरे पति हैं, उन्हें अपने घर जाने की आज्ञा दो। लक्ष्मी जी ने यह कहा कि ये ही भगवान विष्णु हैं। बलि को जब यह पता चला तो उसने तुरन्त भगवान विष्णु को उनके निवास की और रवाना किया।

[भीमकुंड] आपदा से पहले ही संकेत दे देता है ये कुंड



गुजरात में आए भूकंप के दौरान भी यहां का जलस्तर बढ़ा था। सुनामी के दौरान तो कुण्ड का जल 15 फीट ऊपर तक आ गया था।

मध्य प्रदेश का ये कुंड वैसे तो देखने में एक साधारण कुण्ड लगता है, लेकिन इसकी खासियत है कि जब भी एशियाई महाद्वीप में कोई प्राकृतिक आपदा घटने वाली होती है तो इस कुण्ड का जलस्तर पहले ही खुद-ब-खुद बढ़ने लगता है। इस कुण्ड का पुराणों में नीलकुण्ड के नाम से जिक्र है, जबकि
लोग अब इसे भीमकुण्ड के नाम से जानते हैं।
अब तक मापी नहीं जा सकी है कुंड की गहराई

भीमकुण्ड की गहराई अब तक नहीं मापी जा सकी है। कुण्ड के चमत्कारिक गुणों का पता चलते ही डिस्कवरी चैनल की एक टीम कुण्ड की गहराई मापने के लिए आई थी, लेकिन ये इतना गहरा है कि वे जितना नीचे गए उतना ही अंदर और इसका पानी दिखाई दिया। बाद में टीम वापिस लौट गई।
रोचक है इतिहास

कहते हैं अज्ञातवास के दौरान एक बार भीम को प्यास लगी, काफी तलाशने के बाद भी जब पानी नहीं मिला तो भीम ने जमीन में अपनी गदा पूरी शक्ति से मारी, जिससे इस कुण्ड से पानी निकल आया। इसलिए इसे भीमकुण्ड कहा जाता है।
भौगोलिक घटना से पहले देता है संकेत

जब भी कोई भौगोलिक घटना होने वाली होती है यहां का जलस्तर बढ़ने लगता है, जिससे क्षेत्रीय लोग प्राकृतिक आपदा का पहले ही अनुमान लगा लेते हैं। नोएडा और गुजरात में आए भूकंप के दौरान भी यहां का जलस्तर बढ़ा था। सुनामी के दौरान तो कुण्ड का जल 15 फीट ऊपर तक आ गया था।
Sunday,Aug 10,2014 जागरण के अनुसार

Saturday, 9 August 2014

सपनो के बारे में रोचक जानकारी



सपने क्या होते हैं ? यह हर कोई जानता है. पर अब सपनों के बारे में इन रोचक तथ्यों को पढ़ने के बाद आपको लगेगा कि आपका सपनो के बारे में ज्ञान बहुत कम था.

1.आप एक ही समय पर सपने देख और खराटे मार नही सकते.

2.अगर कोई इन्सान आप को कहता है कि उसे सपने नही आते ते इसका मतलब वह अपने सपने भूल चुका है.

3.एक औसतन इन्सान रात में 4 सपने और एक साल में 1,460 सपने देखता है.

4.आप को कभी भी यह याद नही रहेगा कि आपका सपना कहा से शुरू हुआ था.

5.आप जागने के बाद अपने आधे सपने और दस मिनट बाद 90% सपने भूल जाते हैं.

6.अंधे लोगो को भी सपने आते हैं-
जो लोग जन्म के बाद अन्धे बनते है उन्हें अपने सपनो में तस्वीरे दिखाई देती है. मगर जो जन्म से ही अंन्धे होते है उन्हें कोई    तस्वीर नही दिखती और सपनों में चीजो की आवाजे,smells, छूना और भावनाएँ ही आती हैं.

7. सपनों में हम सिर्फ चेहरे देखते है, जो हम पहले से ही जानते होते हैं-
हमारा दिमाग अपने आप चेहरे नही बनाता. सपने में हमे सिर्फ वही चेहरे दिखते हैं जो हमने अपनी जिन्दगी , टी.वी पर देखे  होते हैं.

8.  हर किसी के सपने रंगदार नही होते-
सारे मनुष्य रंगदार सपने नही देखते हैं. पहले के समय में जब टी.वी. नही होते थे तब लगभग सभी लोग Black and White सपने देखते थे. मगर  जब से रंगीन टी.वी. आए हैं तब से 95% लोग रंगीन सपने देखने लगे हैं.

9   भावनाएँ-
ज्यादातर सपने चिंता और फिक्र वाले होते है. सपनो में Negative emotions,positive से ज्यादा होते हैं.

10.  जानवर भी सपने देखते हैं-
अध्ययनों के बाद पता चला है कि जानवर भी सोते समय मनुष्यों की तरह ही दिमागी तरंगे छोड़ते है. कभी आप एक कुत्ते को सोते देखे. वह अपने पैर इस तरह से हिला रहा होगा जैसे किसी का पीछा कर रहा हो.

11. आदमी और औरतों के सपने अलग-अलग होते हैं-
लगभग 70% आदमीयों के सपने अन्य आदमीयों के बारे में ही होते है जब कि औरतो के सपने आदमी और औरतो दोनो के बारे में होते हैं.

12. अमरीका के 16वे राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने अपनी मौत से कुछ समय पहले अपनी पत्नी से कहा था, “मैने अपने सपने में कुछ लोगों को  रोते देखा था”.


13.  हम सोते समय 90 मिनट में एक सपना जरूर देखते हैं और हमारा सबसे लंम्बा सपना सुबह आता है जो कि 30 से 45 मिनट तक का होता है.

14.  अगर सपने में किसी को गंदा पानी दिखता है तो उसका मतलब यह है कि सपना देखने वाला सेहतमंद नही है.

15.   हमारे प्राचीन वेदों में लिखा है कि यह संसार असल में एक सपना ही है और असलीयत कुछ और ही है.

16.   सपने हमें लक्वाग्रस्त बनाते हैं-
इस पग को बताने से पहले हम आप को बता देना चाहते है कि हमारी नींद के 4 चरण होते है उन्में से एक चरण है रेपिड आई मुवमेंट REM (Rapid eye movement). इस अवस्था के दौरान हमारी आँखो की पुतलियाँ तेजी से हिलती हैं. इस अवस्था के दौरान हम सपने देख रहे होते हैं .सपनों की अवस्था तब आती है जब हम नींद के REM चरण में पहुँच जाते हैं. इस अवस्था के दैरान हम स्लीप पेरैलाइज का अनुभव करते हैं यानी कि इस दौरान हमारा शरीर लगभग लकवाग्रस्त सा हो जाता है. हम जागृत अवस्था में होते हैं परंतु हिलडुल नही पाते. इस अवस्था के दौरान हम सपने देखते है. हमें हमारे आसपास का वातावरण जागृत अवस्था में दिखाई देता है. इस समय हमारा दिमाग काफी सक्रीय हो जाता है . कई लोग इस अवस्था के दौरान अचानक जाग जाते हैं परंतु फिर भी हिल-डुल नही पाते. यह अवस्था 5 मिनट तक चल  सकती है जब तक कि दिमाग के वे हिस्से फिर से सक्रीय न हो जाए जो शरीर के हलन-चलन के लिए आवश्यक हैं. कई लोग जिन्होंने खुद को परग्रहवासियों के अधीन हो जाने की बात कही थी, वह वास्तव में इसी अवस्था से गुजरे थे.

17. डरावने सपने-
लगभग 5 से 10 प्रतीशत लोग महीने में एकाध बार भयानक और डरावने सपने देखते है. इस तरह के सपनों में कोई हमारे पीछे भागता है. 3 से 8 साल को बच्चों को इस तरह के सपने अधिक आते हैं.

18.  इलियास होवे ने सिलाई मशीन की खोज की थी. उन्होंने अपने सपनें में खुद को आदिवासियों की कैद में देखा थी जो उन्हें जलाने वाले थे. इस दौरान वे आदिवासी अपने हथियारों को अजीब तरह से सिल रहे थे. परन्तु इससे एलियास को सिलाई मशीन की तकनीक समझ में आ गई.

19.  फेड्रिक ओगस्ट ने बेनजेन(C6H6) जैसा जटिल रसायनिक फार्मुला तैयार किया वह भी सपने की आभारी है. उन्होंने अपने सपने में कुछ साँप देखे  थे जो अपनी पूंछ खा रहे थे.

20.  जैम्स वॉटसन जिन्होंने अपने मित्र फ्रांसिस क्रिक के साथ मिलकर D.N.A की खोज की थी का कहना था कि, “उन्होंने अपने सपने में ढेर सारी स्पायर सीढ़ियॉ देखी थी.

21.  सपने हमें सिखाते हैं-
सपने जाने अनजाने हमारे बौद्धिक विकास में महत्वपुर्ण भाग निभाते हैं. REM अवस्था के दैरान हमारे दिमाग के वे हिस्से काफी सक्रीय हो जाते है जिनसे हम पढ़ना सीखते हैं, यही वजह है कि बच्चे अधिक समय तक इस अवस्था मे गुजरते हैं. सपनों के दौरान हम कई नई बातें सीखते हैं   परन्तु जागने के बाद हमें इसका अहसास नही रहता. दिन में हम जो सीखते हैं, सपनों के दौरान हम उन कलायों में पारंगत बन जाते हैं.



यहां पर हैं हनुमानजी के चरण चिह्न, दर्शन मात्र से मिटते संकट






जहां पर हनुमानजी ने अपने चरण रखे थे याकू ऋषि ने हनुमानजी का एक सुंदर मंदिर बनवाया और कहा कि जब तक यह पहाड़ी है ये चरण हमेशा पूजे जाएंगे।

राम-रावण युद्ध में मेघनाद के तीर से लक्ष्मणजी घायल होकर बेहोश हो गए थे। उस समय जब सब उपचार असफल हो गए, तो वैद्यराज ने हिमालय से संजीवनी जड़ी लाने की सलाह दी और कहा कि अब उसी से लक्ष्मण का जीवन बच सकता है।

संकट की इस घड़ी में रामभक्त श्रीहनुमानजी ने कहा कि मैं संजीवनी लेकर आता हूं। राम की आज्ञा पाकर हनुमानजी वायु की गति से हिमालय की ओर उड़े। रास्ते में उन्होंने याकू नामक ऋषि का आश्रम देखा, जहां ऋषि एक पहाड़ी पर रहते थे।

हनुमानजी ने सोचा ऋषि से संजीवनी का सही पता पूछ लिया जाए। यही सोचकर वे उस पहाड़ी पर उतरे लेकिन जिस समय वे पहाड़ी पर उतरे उस समय पहाड़ी उनके भार को सहन नहीं कर पाई और पहाड़ी आधी भूमि में धंस गई।
हनुमानजी ने ऋषि को नमन कर संजीवनी बूटी के बारे में विस्तृत जानकारी हासिल की तथा ऋषि को वचन दिया कि संजीवनी लेने के बाद जाते वक्त आपके आश्रम में पुन: जरूर आऊंगा।
लेकिन संजीवनी लेने के बाद जाते वक्त रास्ते में 'कालनेमी' राक्षस द्वारा रास्ता रोकने पर उससे हनुमानजी को युद्ध करना पड़ा। कालनेमि परास्त हो गया। यही कालनेमि अगले जन्म में कंस बना।
इस युद्ध के कारण समय ज्यादा व्यतीत होने के कारण हनुमानजी ने गुप्त भाग से लंका पहुंचने का निश्चय किया। जब हनुमानजी जा रहे थे तभी रास्ते में याद आया याकू ऋषि को दिया हुआ वचन। दूसरी ओर ऋषि हनुमानजी का इंतजार कर रहे थे।
हनुमानजी भी ‍ऋषि को नाराज नहीं करना चाहते थे तब उन्होंने अचानक ऋषि के समक्ष प्रकट होकर वस्तुस्थिति बताई और अंतर्ध्यान हो गए।
 जहां पर हनुमानजी ने अपने चरण रखे थे वहां पर याकू ऋषि ने हनुमानजी का एक सुंदर मंदिर बनवाया और कहा कि जब तक यह पहाड़ी है ये चरण हमेशा पूजे जाएंगे।
देवभूमि हिमाचल की राजधानी शिमला में शहर के मध्य में एक बड़ा और खुला स्थान, जहां से पर्वत शृंखलाओं का सुंदर दृश्य देखा जा सकता है। इन पर्वतमालाओं में से एक याकू जाखू (याकू) हिम पहा‍ड़ी के मथ्‍य स्थित हनुमानजी का प्राचीन मंदिर है।
शिमला शहर से मात्र 2 किलोमीटर दूर घने जंगल में स्थित है यह पहाड़ी जिसे जाखू पहाड़ी कहते हैं। देवदार के वृक्षों से घिरी यह पहाड़ी हिम पर्वतमाला का एक हिस्सा है। समुद्र तल से इसकी ऊंचाई 8,500 फुट बताई जाती है।
मार्च से जून के बीच यहां दर्शन के लिए हजारों की संख्‍या में लोग आते हैं। यह समय होता है जबकि शिमला का मौसम भी सुहाना रहता है।
                               
 

ध्रुवतारे की कहानी




राजा उत्तानपाद ब्रह्माजी के मानस पुत्र स्वयंभू मनु के पुत्र थे। उनकी सनीति एवं सुरुचि नामक दो पत्नियाँ थीं। उन्हें सुनीति से ध्रुव एवं सुरुचि से उत्तम नामक पुत्र प्राप्त हुए। वे दोनों राजकुमारों से समान प्रेम करते थे।
यद्यपि सुनीति ध्रुव के साथ-साथ उत्तम को भी अपना पुत्र मानती थीं, तथापि रानी सुरुचि ध्रुव और सुनीति से ईर्ष्या और घृणा करती थीं। वह सदा उन्हें नीचा दिखाने के अवसर ढूँढ़ती रहती थी।
एक बार उत्तानपाद उत्तम को गोद में लिए प्यार कर रहे थे। तभी ध्रुव भी वहाँ आ गया। उत्तम को पिता की गोद में बैठा देखकर वह भी उनकी गोद में जा बैठा। यह बात सुरुचि को नहीं जँची। उसने ध्रुव को पिता की गोद से नीचे खींचकर कटु वचन सुनाए। ध्रुव रोते हुए माता सुनीति के पास गया और सब कुछ बता दिया।
वह उसे समझाते हुए बोली-“वत्स! भले ही कोई तुम्हारा अपमान करें, किंतु तुम अपने मन में दूसरों के लिए अमंगल की इच्छा कभी मत करना। जो मनुष्य दूसरों को दुःख देता है, उसे स्वयं ही उसका फल भोगना पड़ता है। पुत्र! यदि तुम पिता की गोद में बैठना चाहते हो तो भगवान विष्णु की आराधना कर उन्हें प्रसन्न करो। उनकी कृपा से ही तुम्हारे पितामह स्वयंभू मनु को दुर्लभ लौकिक और अलौकिक सुख भोगने के बाद मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। इसलिए पुत्र! तुम भी उनकी आराधना में लग जाओ। केवल वे ही तुम्हारे दुःखों को दूर कर सकते हैं।”
सुनीति की बात सुनकर ध्रुव के मन में श्रीविष्णु के प्रति भक्ति और श्रद्धा के भाव उत्पन्न हो गए। वह घर त्यागकर वन की ओर चल पड़ा। भगवान विष्णु की कृपा से वन में उसे देवर्षि नारद दिखाई दिए। उन्होंने ध्रुव को श्रीविष्णु की पूजा-आराधना की विधि बताई।
ध्रुव ने यमुना के जल में स्नान किया और निराहार रहकर एकाग्र मन से श्रीविष्णु की आराधना करने लगा। पाँच महीने बीतने के बाद वह पैर के एक अँगूठे पर स्थिर होकर तपस्या करने लगा।
धीरे-धीरे उसका तेज बढ़ता गया। उसके तप से तीनों लोक कंपायमान हो उठे। जब उसके अँगूठे के भार से पृथ्वी दबने लगी, तब भगवान विष्णु भक्त ध्रुव के समक्ष प्रकट हुए और उसकी इच्छा पूछी।
ध्रुव भाव-विभोर होकर बोला-“भगवन! जब मेरी माता सुरुचि ने अपमानजनक शब्द कहकर मुझे पिता की गोद से उतार दिया था, तब माता सुनीति के कहने पर मैंने मन-ही-मन यह निश्चय किया था कि जो परब्रह्म भगवान श्रीविष्णु इस सम्पूर्ण जगत के पिता हैं, जिनके लिए सभी जीव एक समान हैं, अब मैं केवल उनकी गोद में बैठूँगा। इसलिए यदि आप प्रसन्न होकर मुझे वर देना चाहते हैं तो मुझे अपनी गोद में स्थान प्रदान  करें, जिससे कि मुझे उस स्थान से कोई भी उतार न सके। मेरी केवल इतनी-सी अभिलाषा है।”
श्रीविष्णु बोले-“वत्स! तुमने केवल मेरा स्नेह प्राप्त करने के लिए इतना कठोर तप किया है। इसलिए तुम्हारी निःस्वार्थ भक्ति से प्रसन्न होकर मैं तुम्हें ऐसा स्थान प्रदान करूँगा, जिसे आज तक कोई प्राप्त नहीं कर सका। यह ब्रह्मांड मेरा अंश और आकाश मेरी गोद है। मैं तुम्हें अपनी गोद में स्थान प्रदान करता हूँ। आज से तुम ध्रुव नामक तारे के रूप में स्थापित होकर ब्रह्मांड को प्रकाशमान करोगे।”
इसके आगे श्रीविष्णु ने कहा, “तुम्हारा पद सप्तर्षियों से भी बड़ा होगा और वे सदा तुम्हारी परिक्रमा करेंगे। जब तक यह ब्रह्मांड रहेगा, कोई भी तुम्हें इस स्थान से नहीं हटा सकेगा। वत्स! अब तुम घर लौट जाओ। कुछ समय के बाद तुम्हारे पिता तुम्हें राज्य सौंपकर वन में चले जाएँगे। पृथ्वी पर छत्तीस हज़ार वर्षों तक धर्मपूर्वक राज्य भोगकर अंत में तुम मेरा मेरे पास आओगे।”
इतना कहकर भगवान विष्णु अंतर्धान हो गए। इस प्रकार अपनी भक्ति से भगवान विष्णु को प्रसन्न कर बालक ध्रुव संसार में अमर हो गया।

जगन्नाथ मंदिर के कुछ आश्चर्यजनक तथ्य:-


1. मन्दिर के ऊपर स्थापित ध्वज सदैव हवा के विपरीत दिशा में लहराता है।
2. पुरी में किसी भी स्थान से आप मन्दिर के ऊपर लगे सुदर्शन चक्र को देखेंगे तो वह आपको सदैव अपने सामने ही
लगा दिखेगा।
3. सामान्य दिनों के समय हवा समुद्र से जमीन की तरफ आती है, और शाम के दौरान इसके विपरीत, लेकिन पुरी में इसका उल्टा होता है ।
4. पक्षी या विमानों को मंदिर के ऊपर उड़ते हुए नहीं पायेगें।
5. मुख्य गुंबद की छाया दिन के किसी भी समय अदृश्य ही रहती है ।
6. मंदिर के अंदर पकाने के लिए भोजन की मात्रा पूरे वर्ष के लिए रहती है। प्रसाद की एक भी मात्रा कभी भी व्यर्थ नहीं जाती, चाहे हजार लोगों से 20 लाख लोगों को खिला सकते हैं ।
7. मंदिर की रसोई में प्रसाद पकाने के लिए 7 बर्तन एक-दूसरे पर रखा जाता है और सब कुछ लकड़ी पर ही पकाया जाता है । इस प्रक्रिया में शीर्ष बर्तन में सामग्री पहले पकती है फिर क्रमश: नीचे की तरफ एक के बाद एक पकती जाती है।
8. मन्दिर के सिंहद्वार में पहला कदम प्रवेश करने पर ही (मंदिर के अंदर से) आप सागर द्वारा निर्मित किसी भी ध्वनि नहीं सुन सकते, आप (मंदिर के बाहर से) एक ही कदम को पार करें जब आप इसे सुन सकते हैं, इसे शाम को स्पष्ट
रूप से अनुभव किया जा सकता है।
साथ में यह भी जाने:-
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मन्दिर का रसोईघर दुनिया का सबसे बड़ा रसोईघर है।
प्रति दिन सांयकाल मन्दिर के ऊपर स्थापित ध्वज को मानव द्वारा उल्टा चढ़ कर बदला जाता है।
मन्दिर का क्षेत्रफल चार लाख वर्ग फिट में है।
मन्दिर की ऊंचाई 214 फिट है।
विशाल रसोई घर में भगवान जगन्नाथ को चढ़ाने वाले महाप्रसाद का निर्माण करने हेतु 500 रसोईये एवं उनके 300
सहायक-सहयोगी एक साथ काम करते है। सारा खाना मिट्टी के बर्तनो मे पकाया जाता है !
हमारे पूर्वज कितने बढे इंजीनियर रहें होंगे
अपनी भाषा अपनी संस्कृति अपनी सभ्यता पर गर्व करो
गर्व से कहो हम हिन्दुस्तानी है

ॐ ॐ

Friday, 8 August 2014

जानियें महाभारत में कौन किसका अवतार था




महाभारत में जितने भी प्रमुख पात्र थे वे सभी देवता, गंधर्व, यक्ष, रुद्र, वसु, अप्सरा, राक्षस तथा ऋषियों के अंशावतार थे। भगवान नारायण की आज्ञानुसार ही इन्होंने धरती पर मनुष्य रूप में अवतार लिया था। महाभारत के आदिपर्व में इसका विस्तृत वर्णन किया गया है। उसके अनुसार-
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वसिष्ठ ऋषि के शाप व इंद्र की आज्ञा से आठों वसु शांतनु के द्वारा गंगा से उत्पन्न हुए। उनमें सबसे छोटे भीष्म थे।
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भगवान विष्णु श्रीकृष्ण के रूप में अवतीर्ण हुए।
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महाबली बलराम शेषनाग के अंश थे।
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देवगुरु बृहस्पति के अंश से द्रोणाचार्य का जन्म हुआ।
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अश्वत्थामा महादेव, यम, काल और क्रोध के सम्मिलित अंश से उत्पन्न हुए।
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रुद्र के एक गण ने कृपाचार्य के रूप में अवतार लिया।
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द्वापर युग के अंश से शकुनि का जन्म हुआ।
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अरिष्टा का पुत्र हंस नामक गंधर्व धृतराष्ट्र तथा उसका छोटा भाई पाण्डु के रूप में जन्में।
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सूर्य के अंश धर्म ही विदुर के नाम से प्रसिद्ध हुए।
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कुंती और माद्री के रूप में सिद्धि और धृतिका का जन्म हुआ था।
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मति का जन्म राजा सुबल की पुत्री गांधारी के रूप में हुआ था।
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कर्ण सूर्य का अंशवतार था।
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युधिष्ठिर धर्म के, भीम वायु के, अर्जुन इंद्र के तथा नकुल व सहदेव अश्विनीकुमारों के अंश से उत्पन्न हुए थे।
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राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मिणी के रूप में लक्ष्मीजी व द्रोपदी के रूप में इंद्राणी उत्पन्न हुई थी।
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दुर्योधन कलियुग का तथा उसके सौ भाई पुलस्त्यवंश के राक्षस के अंश थे।
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मरुदगण के अंश से सात्यकि, द्रुपद, कृतवर्मा व विराट का जन्म हुआ था।
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अभिमन्य, चंद्रमा के पुत्र वर्चा का अंश था।
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अग्नि के अंश से धृष्टधुम्न व राक्षस के अंश से शिखण्डी का जन्म हुआ था।
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विश्वदेवगण द्रोपदी के पांचों पुत्र प्रतिविन्ध्य, सुतसोम, श्रुतकीर्ति, शतानीक और श्रुतसेव के रूप में पैदा हुए थे।
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दानवराज विप्रचित्ति जरासंध व हिरण्यकशिपु शिशुपाल का अंश था।
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कालनेमि दैत्य ने ही कंस का रूप धारण किया था।
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इंद्र की आज्ञानुसार अप्सराओं के अंश से सोलह हजार स्त्रियां उत्पन्न हुई थीं।
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इस प्रकार देवता, असुर, गंधर्व, अप्सरा और राक्षस अपने-अपने अंश से मनुष्य के रूप में उत्पन्न हुए थे।


जानें हनुमान जी की अष्ट सिद्धियाँ


योगी साधक से लेकर आम आदमी सभी सिद्धियो को पाने के लिए कठिन तप-योग आदि करते है... योगी योग साधते हैं, तपस्वी कठिन तप करते हैं... कितने लोग देवी-देवताओं की उपासना में जीवन व्यतीत कर देते हैं, लेकिन इनमें से विरले ही होते है जिन्हें सिद्धि प्राप्त होती है... लेकिन इन सबो से इतर किसी व्यक्ति पर ईश्वर की दया-दृष्टि पड़ जाये तो उसे सिद्धियां-निधियां सहज ही प्राप्त हो जाती हैं... पुराणो के अनुसार जब जगत-जननी सीता लंका की अशोक-वाटिका में कैद थीं... और उनकी खोज करते हनुमान राम का संदेश लेकर उनके सामने प्रकट हो गए... हनुमान ने सीता की खोज कर ली... वे उनके उपकार को कैसे भूल सकती थीं? उन्होंने हनुमान को वरदान देकर उन्हें कृत-कृत्य कर दिया... इसका वर्णन गोस्वामी तुलसीदास ने हनुमान चालीसा में किया है -
अष्ट सिद्धि नव निधि के दाता। असवर दीन्ह जानकी माता।।
माता जानकी के वरदान के अनुसार पवनपुत्र को ये सिद्धियां-निधियां प्राप्त ही नहीं हुईं, बल्कि वे इन्हें दूसरों को देने में भी समर्थ हो गए... ये सिद्धियां क्या हैं? मार्कंडेय पुराण और ब्रह्मवैवर्त पुराण में सिद्धियों का उल्लेख आया है-
अणिमा लघिमा गरिमा प्राप्ति: प्राकाम्यंमहिमा तथा। ईशित्वं च वशित्वंच सर्वकामावशायिता:।।
इस प्रकार आठ सिद्धियां हैं-अणिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य,महिमा, ईशित्व और वशित्व... जानते है ये क्या है इनका क्या उपयोग है -
अणिमा - यह वह सिद्धि है, जिससे युक्त व्यक्ति गुप्त होकर कहीं भी पहुंच सकता है... वह सूक्ष्म रूपधारी होने के कारण दूसरों के लिए अदृश्य हो जाता है...
लघिमा - इससे व्यक्ति अपने शरीर को काफी छोटा कर सकता है... यह सिद्धि हनुमान को पहले से ही प्राप्त थी... सीता की खोज में लंका-प्रवेश करते हुए उन्होंने अपने विशालकाय शरीर को मच्छर की तरह छोटा कर लिया था...
गरिमा - इस सिद्धि से मनुष्य अपने शरीर को जितना चाहे, उतना भारी बना सकता है... इस संदर्भ में गणेश पुराण की एक कथा है... गणेश जी ने किसी ऋषि को एक विशालकाय चूहे से परेशान देखा... उन्होंने ऋषि को इस कष्ट से मुक्ति दिलाने के लिए चूहे से युद्ध करना शुरू किया... गणपति की वीरता से प्रसन्न होकर दीर्घकाय मूषक ने गणेश जी को वरदान मांगने को कहा... उन्होंने कहा, तुम मेरा वाहन बन जाओ... वचन के अनुसार वह गणेश का वाहन बन गया, लेकिन गणेशजीने गरिमा सिद्धि से अपने शरीर को इतना भारी कर लिया कि दीर्घकाय मूषक का दम निकलने लगा... चूहे की प्रार्थना पर गणेशजीने उसे इस शर्त पर छोड दिया कि वह पुन:ऋषि को तंग नहीं करेगा...
प्राप्ति - इस सिद्धि को प्राप्त व्यक्ति जिस वस्तु की भी अभिलाषा करता है, वह अप्राप्य होने पर भी उसे प्राप्त हो जाती है... उदाहरण के लिए, यदि कोई ऐसा सिद्ध व्यक्ति मरुभूमि से गुजर रहा हो और प्यास से ग्रस्त हो जाए, तो इच्छा करने मात्र से उसे गंगाजल भी प्राप्त हो जाता है...
प्राकाम्य - यहसिद्धि उपरोक्त सिद्धि से मिलती-जुलती है... इससे संपन्न व्यक्ति जो चाहता है, वही हो जाता है... इस संबंध में एक ऐतिहासिक उदाहरण है... वामाक्षेपा भगवती तारा के महान उपासक एवं विश्वविख्यात तांत्रिक थे... एक बार उनके पिता के श्राद्ध के समय जब सैकडों लोग भोजन पर बैठे थे, तो अचानक आसमान जल भरे बादलों से घिर आया... कहते हैं कि वामाक्षेपा ने हाथ ऊपर उठाकर बादलों को बरसने से रोक दिया...
महिमा - यह लघिमा के ठीक विपरीत है... इस सिद्धि से संपन्न व्यक्ति अपने शरीर को विशाल कर सकता है... हनुमान ने समुद्र पार करने लिए अपने शरीर को अत्यंत दीर्घ बना लिया था... महाभारत युद्ध के समय श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन को अपना विराट स्वरूप दिखलाया था...
ईशित्व - यहशब्द ईश से बना है... इस सिद्धि को प्राप्त व्यक्ति प्रभुत्व और अधिकार प्राप्त करने में सक्षम होता है... वह चाहे तो मनुष्यों के समूहों और छोटे-से-छोटे राज्यों से लेकर साम्राज्यों का भी अपनी इच्छा मात्र से अधिकारी बन सकता है... भगवान वामन ने तीन पगों से ही पृथ्वी, स्वर्ग और पाताल तक को माप कर अपने अधिकार में कर लिया था...
वशित्व - यहसिद्धि किसी को भी वश में करने के लिए ख्यात है... मान्यता है कि इस सिद्धि से संपन्न व्यक्ति किसी भी प्राणी को अपने वश में कर सकता है...
अब जानते है उनकी  नौ निधियां के बारे में ---
निधि का अर्थ सामान्यत:धन या ऐश्वर्य होता है... प्रमुख वस्तुएं, जो अति दुर्लभ होती हैं, निधियां कहलाती हैं... इनका उल्लेख ब्रह्मांड पुराण एवं वायु पुराण में मिलता है... इनमें से नौ प्रमुख निधियों को चुनें, तो वे होंगी ---
रत्न-किरीट [अर्थात् रत्न का मुकुट]
केयूर [बाहों में पहनने वाला सोने का आभूषण]
नूपुर
चक्र
रथ
मणि
भार्या [पत्नी]
गज
पद्म या महापद्म
कुबेर देवताओं के कोषाध्यक्ष माने जाते हैं... इनके नौ रत्न नौ निधियों में विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं- पद्म, महापद्म,शंख, मकर, कच्छप, मुकुंद, कुंद, नील और खर्व...

ब्रह्मचर्य वास्तव में है क्या? एक बार जरुर पड़ें


हम सबने एक शब्द सुना है जिसे ‘ब्रह्मचर्य’ कहते हैं| यह शब्द बना है ब्रह्म+चर्य से| ब्रह्म का अर्थ है चैतन्य या आत्मा तथा चर्य का अर्थ है आचरण में लाना या implement करना| आत्मा का आचरण कैसे किया जा सकता है क्योंकि आत्मा कोई काम तो है नहीं जिसे क्रियान्वित किया जा सके? सबसे पहले तो यह पता चले कि आत्मा है क्या! हिंदू दर्शन में ब्रह्मचर्य का सम्बन्ध पवित्रता से है| समाज में इस शब्द का अर्थ आजीवन अविवाहित रहने से दिया जाता है| आज के जमाने में कुछ व्यक्ति विवाह नहीं करते लेकिन उनके सम्बन्ध जरूर होते हैं, तो क्या वे ब्रह्मचारी कहे जायेंगे? लिव इन रिलेशन भी इसी श्रेणी में आते हैं, क्या वे भी ब्रह्मचारी कहे जायेंगे?
सबसे पहले हम जानेंगे कि आत्मा क्या है| उससे पहले यह जानना जरूरी है कि आत्मा क्या नहीं है! आत्मा कोई पुस्तक नहीं है, किसी व्यक्ति का विचार नहीं है, कोई दर्शन नहीं है, बहस का मुद्दा नहीं है, कोई धातु नहीं है, कोई पदार्थ नहीं है जिस पर शोध हो सके| यदि एल्बर्ट आइंस्टीन की मानें तो ब्रह्माण्ड दो ही चीज़ों से बना है – पदार्थ और विकिरण (matter & radiation)| अर्थात आत्मा इन दोनों में से कुछ नहीं है| अब प्रश्न यह है कि आप जिसे कानों से सुन नहीं सकते, आँखों से देख नहीं सकते, नाक से सूंघ नहीं सकते, जीभ से स्वाद नहीं ले सकते, छू नहीं सकते तो वह अस्तित्व में है भी या नहीं? इस प्रश्न का उत्तर है एक और प्रश्न जो यह पूछता है कि आप स्वयं को मरों में गिनते हैं या जिन्दा में? आप में और कुर्सी टेबल में क्या अंतर है? केवल स्वरुप का या कुछ और भी बहुत बड़ा अंतर है जो आपको जिन्दों की श्रेणी में रखता है? कुछ लोगों का उत्तर हो सकता है कि हम सोच सकते हैं इसीलिए हम जिन्दा हैं| हम अपनी पहचान खुद बता सकते हैं, इसीलिए हम जिन्दा हैं| उनके लिए एक अगला प्रश्न, यदि आप सोच सकते हैं तो वे विचार कहाँ process होते हैं? उत्तर होगा मस्तिष्क में| मस्तिष्क क्या है? मांस से बना हुआ 2-3 किलो का एक पदार्थ| यानी non living object| कोई भी ऐसी चीज़ बिना किसी ऊर्जा के स्वचालित नहीं हो सकती और आप स्वयं किसी बैटरी से नहीं चल रहे हैं, तो फिर इस मस्तिष्क के पीछे कौन है? वह क्या है जो आपको आपके होने का एहसास करा रही है? आप उसे नकार नहीं सकते क्योंकि उसको नकारते ही आपकी गिनती मरों में हो जायेगी! फिर आप में और दूसरे पदार्थों में कोई फर्क नहीं रह जायेगा| फिर पत्थर की तरह आपको पटक देने या काट देने पर आप रोने और चीखने का अधिकार खो बैठेंगे! इसका अर्थ है कि आप बस हो और आप जो भी हो उसकी सही सही व्याख्या शब्दों से कर पाना आप के बस की बात नहीं लेकिन आप हो, इसे आप महसूस कर सकते हो! जिसे आप महसूस कर रहे हो वो मांस के लोथड़े मस्तिष्क या बुद्धि से श्रेष्ठ है क्योंकि वही उसके पीछे उसे चला रहा है!
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः| मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः||‌‌‍‍ (श्रीमद्भगवदगीता ३/४२)
स्थूल शरीर (हाड़ मांस से बना हुआ) से सूक्ष्म इन्द्रियां हैं (छूने, सूंघने, सुनने, देखने, स्वाद लेने का ज्ञान)| इन्द्रियों से भी छोटा है मन जो इन सब का ज्ञान देता है और जहाँ विचार उठते हैं| इनसे भी सूक्ष्म है बुद्धि जहाँ ये informations इकट्ठी और process होती हैं| इस बुद्धि से भी जो परे है, उसे कहते हैं आत्मा! दूसरे शब्दों में कहें तो आत्मा चेतनता या चैतन्य है| यह हमारा असली स्वरुप है और यही प्राणों को धारण कर हमें प्राणी बनाती है|
आत्मा की रुपरेखा तो मिल गयी, अब चलते हैं अपने पहले सवाल की ओर जो पूछता है कि ब्रह्म का आचरण क्या चीज़ है? इस दुनिया में जीने के लिए शरीर का होना जरूरी है| अपने कर्मों को करने के लिए इस शरीर में बल का होना जरूरी है| इस बल को आप प्राण शक्ति कह सकते हैं यानी जब तक आपकी साँसें चल रही हैं, तब तक आप जीवित हैं| प्राण ही खाए हुए भोजन से शक्ति खींच कर शरीर को देता है| इस शक्ति या ऊर्जा का एक स्रोत है जो प्रजनन के लिए इस्तेमाल होता है, जिसे काम शक्ति कहते हैं| हमारी शारीरिक ऊर्जा का एक बहुत बड़ा हिस्सा होती है यह शक्ति| जिस समय यह शक्ति इकट्ठी होना बंद हो जाती है, मृत्यु आपको गले लगा लेती है! यह ऊर्जा तो एक ही है लेकिन इसको उपयोग करने के मार्ग दो हैं – एक है संसार को भौतिक गति देने से और दूसरा है संसार को आत्मिक गति देने से|
जिस तरह हमारा शरीर एक सधे हुए सिस्टम के अनुसार अपना कार्य करता है ठीक उसी प्रकार यह विश्व भी अपने एक निश्चित सिस्टम के अनुसार चल रहा है| यहाँ हर घटना पहले से तय है| इस संसार को चलाने वाली एक संकल्प शक्ति है जो यह जानती है कि अपने लक्ष्य को कैसे प्राप्त करना है और वो उसी की प्राप्ति के लिए विश्व में असंख्य घटनाक्रमों को अंजाम देती है जिसमें पाप भी शामिल है और पुण्य भी| कारक वह संकल्प शक्ति है और उसका मंच है यह विश्व जहाँ चकाचौंध है| इस विश्व में जो भी शरीर धारण करता है उसे घटनाक्रमों से गुजरना होता है| वह कर्मों में बंधता है| उसे अपना भरण पोषण करना पड़ता है| उसे दूसरों का भी भरण पोषण करना पड़ता है| इन दायित्वों के निर्वहन को भौतिक गति कहते हैं जो उस बड़ी संकल्प शक्ति का एक बहुत ही सूक्ष्म हिस्सा है| हर प्राणी को यहाँ कर्म करना पड़ता है लेकिन क्यों करना पड़ रहा है यह केवल वह संकल्प शक्ति ही जानती है! इन्हीं कर्मों में एक कर्म है प्रजनन यानी वंश आगे बढ़ाना जिसके लिए कामशक्ति चाहिए| तो यह हुआ काम ऊर्जा का भौतिक उपयोग|
हम लोग यह समझते हैं कि अपने जीवन में जो भी हम हैं, वो हम अपने संकल्पों के कारण हैं| यदि आप इसका सूक्ष्म विश्लेषण करें तो आप पाएंगे कि जीवन के हर मोड़ पर जिन परिस्थितियों ने आपको कोई निर्णय लेने पर विवश किया है (जिन निर्णयों ने आपके जीवन की दिशा बदली), वे परिस्थितियाँ कभी आपके वश में नहीं थीं बल्कि आप हमेशा उन परिस्थितियों का हिस्सा बने! यदि हम कर्म सिद्धांत की बात करें तो उसके अनुसार व्यक्ति के जीवन की परिस्थितियाँ उसके पूर्व कर्मों का परिणाम या फल होती हैं जिसका अर्थ यह हुआ कि आज जो परिस्थितियाँ आपको विवश कर रही हैं उसका बीज हमने कभी पहले बोया है| मान लीजिए कि परिस्थिति प्रतिकूल है तो आप कभी यह तो नहीं चाहेंगे कि आप प्रतिकूल स्थिति से गुजरें यानी जब आपने कोई ऐसा पूर्व कर्म किया होगा जिससे यह नौबत आई है, उस समय आपको यह नहीं पता था कि परिणाम क्या होगा! आप थोड़ा और विश्लेषण करने पर पाएंगे कि हर समय कर्म और उसके फल को ध्यान में रखने से भी काम नहीं चल सकता| जैसे, यदि आप सड़क पर गाड़ी चला रहे हैं और कोई जीव एक दम से आपकी गाड़ी से टकरा जाए तो उसका फल आपको मिलेगा| इसका अर्थ यह हुआ कि आप हमेशा से मजबूर हैं| इसका अर्थ यह हुआ कि जिसे आप अपना संकल्प सोच रहे हैं वो वास्तव में आपका एक भ्रम है क्योंकि आप परिस्थितियाँ पैदा नहीं कर रहे हैं, बल्कि परिस्थितियाँ आपको चला रही हैं और आपको नीयत निर्णय के साथ निश्चित कर्म करने की प्रेरणा दे रही हैं| उदाहरण के लिए यदि कोई गर्म चीज़ आपके हाथ पर गिर जाए तो आप हाथ को ठन्डे पानी से धोने दौड़ेंगे| धोना आपका कर्म हुआ और गर्म वस्तु का गिरना परिस्थिति और यदि वह पदार्थ ही न गिरता तो? किन्तु यह भी सच है कि जो भी हो रहा है, उसमें एक गति या symmetry है| इसका अर्थ यह हुआ कि कुछ तो है जो इसे नियंत्रित कर रहा है लेकिन किसलिए? यही है वो ब्रह्मशक्ति, आत्मा, परमात्मा, परमक्षर….
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन| नानवाप्तवाप्तव्यम् वर्त एव च कर्मणि|| (श्रीमद्भगवदगीता ३/२२)
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः| मम वत्र्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः|| (श्रीमद्भगवदगीता ३/२३)
उत्सीदेयुरिमे लोक न कुर्याम् कर्म चेदहम्| संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः|| (श्रीमद्भगवदगीता ३/२४)
भावार्थ – हे पार्थ! मेरे लिए तीनों लोकों में कोई भी ऐसा कर्म नहीं है जो करना आवश्यक हो, और न कोई ऐसा पदार्थ है जो प्राप्त होना चाहिए पर मुझे प्राप्त न हो| किन्तु फिर भी मैं कर्म में लगा रहता हूँ| (३/२२)
यदि मैं सावधान होकर कर्म में न बरतूं तो हे पार्थ! सब लोग सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुकरण कर कर्म करना ही छोड़ दें! (३/२३)
यदि मैं कर्म करना छोड़ दूं तो ये सब लोक नष्ट हो जाएँ तथा मैं संसार में अव्यवस्था फैलाने वाला बन जाऊं और इन लोगों का विनाश कर बैठूँ| (३/२४)
यह शक्ति जिस उद्देश्य से संसार को जिन परिस्थितियों से गुजार रही है, उसे समझ कर तथा उसके साथ तालमेल बिठा कर उस उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया गया कर्म ही दिव्य या आत्मिक कर्म है| इस मार्ग को समझ कर इस पर चलने वाले को योगी कहते हैं| योग का अर्थ है जोड़ जब जीवात्मा अपने जीवन को परमात्मा के उद्देश्य या परमात्मा से विलय कर लेती है| योगी बनने से पहले आत्मा से साक्षात्कार या उसके स्वरुप का सही सही बोध होना आवश्यक है| केवल आत्मा -आत्मा चिल्लाने से यह संभव नहीं होता| उसके लिए अपने एषणाओं से आगे निकलकर सत्य की अनुभूति के लिए ललक चाहिए होती है|
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः| कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुनः|| (श्रीमद्भगवदगीता ६/४६)
भावार्थ – योगी तपस्वियों से भी श्रेष्ठ है और ज्ञानियों से भी| योगी सकाम कर्म करने वालों से तो श्रेष्ठ है ही इसीलिए हे अर्जुन, तो योगी बन!
इस साक्षात्कार के अनेकों मार्ग हैं| जिसको जो सही जमे, वो उस रास्ते को पकड़ ले| अपनी काम शक्ति को ईंधन के रूप में उपयोग कर इस मार्ग पर चलते हुए ब्रह्म के उद्देश्य के साथ तालमेल बैठाने को ही आत्मिक गति कहते हैं| सरल शब्दों में कहें तो संसार में किसी बड़े सकारात्मक बदलाव को करने के लिए इस शक्ति की जरूरत होती है| इस शक्ति की रक्षा करनी पड़ती है| इसी को ब्रह्मचर्य कहते हैं| ब्रह्म के अनुसार, ब्रह्म के लिए और ब्रह्म द्वारा आचरण जिसके लिए भीषण शक्ति चाहिए क्योंकि कार्य भी उतना ही विराट है!
..ॐ..

ये एक गेहूं का दाना है पांडवों की निशानी, वजन करीब 150 ग्राम


महाभारत के काल का इतिहास करीब 5000 हजार साल पुराना हो चुका है। उस समय द्वापर युग चल रहा था और अब कलियुग चल रहा है। पांडवों के बाद से ही कलियुग प्रारंभ हो गया था। उस काल से जुड़ी कई निशानियां अलग-अलग शोधों में देश के कई हिस्सों में मिली हैं। जब पांडवों का अज्ञातवास चल रहा था, तब वे शिमला क्षेत्र (हिमाचल प्रदेश) में करसोग घाटी के ममेल गांव में ठहरे थे। ऐसा माना जाता है कि उस काल का एक गेहूं का दाना आज भी यहां स्थित ममलेश्वर महादेव मंदिर में रखा हुआ है। इस गेहूं के दाने का वजन करीब 150 ग्राम है।

यहां प्रचलित मान्यता के अनुसार इसी मंदिर में पांच पांडवों के पांच शिवलिंग भी स्थापित हैं। इन पांचों शिवलिंगों का पूजन करने पर भक्तों की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। यदि कोई व्यक्ति नियमित रूप से एक लोटा जल भी इन शिवलिंगों पर अर्पित करता है तो उसे शिवजी की कृपा प्राप्त होती है और दुखों से मुक्ति मिलती है। इस क्षेत्र में एक प्राचीन ढोल भी है। इस ढोल के संबंध में ऐसा माना जाता है कि यह भीम का ढोल का है।




प्राचीन ढोल। इस ढोल के संबंध में ऐसा माना जाता है कि यह भीम का ढोल का है।
कहां है करसोग नगर
हिमाचल प्रदेश के शिमला के करीब ही स्थित है करसोग नगर। यहां पहुंचने के लिए शिमला से आवागमन के कई साधन उपलब्ध हो जाते हैं। करसोग पर्वतों और यहां के प्राकृतिक वातावरण के कारण भी प्रसिद्ध है। इस क्षेत्र में ममलेश्वर महादेव, कामाक्षा माता मंदिर, मांहुनाग मंदिर, धमूनी नाग मंदिर, देव दवाडी मंदिर दवाहड, अर्द्धनारीश्वर मंदिर आदि प्रसिद्ध स्थान हैं। यहां का प्राकृतिक वातावरण बहुत ही सुंदर दिखाई देता है।


पांच पांडवों द्वारा स्थापित शिवलिंग।


 ममलेश्वर महादेव मंदिर








यज्ञ /हवन करने के लाभ



वैज्ञानिक रूप से लाभ :-

यज्ञ के पीछे एक सांइटिफिक कारण होता है क्योँकि यज्ञ मेँ सब जड़ी बूटियाँ ही डाली जाती हैँ। आम की लकड़ी, देशी घी, तिल, जौँ, शहद, कपूर, अगर तगर, गुग्गुल, लौँग, अक्षत, नारियल शक्कर और अन्य निर्धारित आहूतियाँ भी बनस्पतियाँ ही होती हैँ।
नवग्रह के लिए आक, पलाश, खैर,शमी,आपामार्ग, पीपल, गूलर, कुश, दूर्वा आदि सब आयुर्वेद मेँ प्रतिष्ठित आषधियाँ हैँ। यज्ञ करने पर मंत्राचार के द्वारा न सिर्फ ये और अधिक शक्तिशाली हो जाती हैँ बल्कि मंत्राचार और इन जड़ीबूटियोँ के धुएँ से यज्ञकर्ता/ यजमान / रोगी की आंतरिक बाह्य और मानसिक शुद्धि भी होती है। साथ ही मानसिक और शारीरिक बल तथा सकारात्मक ऊर्जा भी मिलती है।
अधार्मिक, नास्तिक, तर्कवादी और पश्चिमी सभ्यता के चाटुकार आधुनिकतावादी और अतिवैज्ञानिक लोग यज्ञ के लाभ को नकारते हैँ परन्तु यज्ञ के मूल को नहीँ समझते ।
हमारे पूर्वजोँ ने इसे यूँ ही महत्व नहीँ दिया, यज्ञ मेँ जो आहूतियाँ देते है, तब यज्ञ की अग्नि मेँ या इतने हाई टेम्परेचर मेँ Organic material जल जाता है और inorgnic residue शेष रह जाता है जो दो प्रकार का होता है। एक ओर कई complex chemical compounds टूट कर सिम्पल या सरल रूप मेँ आ जाते है वहीँ कुछ सरल और जटिल react कर और अधिक complex compound बनाते हैँ। ये सब यज्ञ के धुएँ के साथ शरीर मेँ श्वास और त्वचा से प्रवेश करते हैँ और उसे स्वस्थ बनाते हैँ।
कई बार आपने सुना होगा कि किसी बाबा ने भभूत खिलाकर रोगी को ठीक कर दिया या फलाँ जगह मँदिर आश्रम आदि की भभूत से चमत्कार हुऐ, रोगी ठीक हुए यह सत्य होता है और उसका वैज्ञानिक कारण मैँ आपको ऊपर बता चुका हूँ ।
इसी प्रकार यज्ञ की शेष भभूत सिर्फ चुटकी भर माथे पर लगाने और खाने पर बेहद लाभ देती है क्योँकि micronised/ nano particles के रूप मेँ होती है और शरीर के द्वारा बहुत आसानी से अवशोषित(absorb) कर ली जाती है। जिस हवन मेँ जौँ एवं तिल मुख्य घटक यानि आहूति सामग्री के रूप मेँ उपयोग किये गये होँ बहाँ से थोड़ी सी भभूत प्रसाद स्वरूप ले लेँ और बुखार, खाँसी, पेट दर्द, कमजोरी तथा मूत्र विकार आदि मेँ एक चुटकी सुबह शाम पानी से फाँक ले तो दो तीन दिन मेँ ही आराम मिल जाता है। साथ ही यज्ञादि से वर्षा भी अच्छी होती है जिससे अन्न जल की कोई कमी नहीँ होती ये भी प्रमाणिक है। इसलिए आप भी यज्ञ करवाएं या किसी हवन व यज्ञ में हिस्सा लें I
धार्मिक रूप में लाभ :-
जब सारे जप-तप निष्फल हो जाते हैं, तब यज्ञ ही सब प्रकार से रक्षा करता है। सृष्टि के आदिकाल से प्रचलित यज्ञ सबसे पुरानी पूजा पद्धति है। आज आवश्यकता है यज्ञ को समझने की। वेदों में अग्नि परमेश्वर के रूप में वंदनीय है। यज्ञ को श्रेष्ठतम कर्म माना गया है। समस्त भुवन का नाभि केंद्र यज्ञ ही है। यज्ञ की किरणों के माध्यम से संपूर्ण वातावरण पवित्र व देवगम बनता है। यज्ञ भगवान विष्णु का ही अपना स्वरूप है। वेदों का संदेश है कि शाश्वत सुख और समृद्धि की कामना करने वाले मनुष्य यज्ञ को अपना नित्य कर्तव्य अवश्य समझें। भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भगवत गीता में अर्जुन से कहते हैं, हे अर्जुन! जो यज्ञ नहीं करते हैं, उनको परलोक तो दूर यह लोक भी प्राप्त नहीं होता है। जिन्हें स्वर्ग की कामना हो, जिन्हें जीवन में आगे बढ़ने की आकांक्षा हो उन्हें यज्ञ अवश्य करना चाहिए। यज्ञ कुंड से अग्नि की उठती हुई लपटें जीवन में ऊंचाई की तरह उठने की प्रेरणा देती हैं। यज्ञ में मुख्यत: अग्नि देव की पूजा का महत्व होता है।
यज्ञ करने वाले बड़भागी होते हैं। इस लोक में उनका दु:ख-दारिद्रय तो मिटता ही है, साथ ही परलोक में भी सद्गति की प्राप्ति होती है। यज्ञ में जलने वाली समिधा समस्त वातावरण को प्रदूषण मुक्त करती है। यज्ञवेदी पर गूंजने वाली वैदिक ऋचाओं का तो कहना ही क्या, अद्भुत प्रभाव डालती हैं। यज्ञ में बोले जाने वाले मंत्र व्यक्ति की मनोकामनाओं को पूर्ण करते हैं। यज्ञ से ब्रह्मवर्चस की प्राप्ति होती है। यज्ञ से शांति, सुख की प्राप्ति होती है। जो याज्ञिक हैं, वे हर बाधा को पार कर जाते हैं। यज्ञ में बोले जाने वाले हर मंत्र में शरीर को झंकृत करने की अपार शक्ति होती है। परमपिता परमेश्वर से नाता जोड़ने का अनुपम माध्यम है यज्ञ। मनुस्मृति में उल्लेख है कि यज्ञ के माध्यम से मनुष्य विद्वान बनता है, लेकिन मनुष्य को स्वयं को कुछ विशेष आहार-विहार एवं गुण-कर्म में ढालना पड़ता है। ताकि इस दौरान उसका चिंतन मनन श्रेष्ठ बना रहे। यज्ञ लौकिक संपदा के साथ-साथ आध्यात्मिक संपदा की प्राप्ति का द्वार है।
[आचार्य अनिल वत्स

Thursday, 7 August 2014

जानिए श्रावण शुक्ल एकादशी (पुत्रदा एकादशी ) के बारे में

पुत्रदा एकादशी की कथा से गौ महिमा का पता चलता है !!!किसी वैश्य (व्यापारी) ने एक बार पानी पीती हुई प्यासी गौ को पानी पीने से रोका था ,,,,अगले जन्म में कई पूण्य कर्मो के कारण वह राजा बना ,,,,धर्मात्मा भी था ,,लेकिन उसे कभी भी राज्य के सुख का अनुभव नहीं हुआ ,,,क्योंकि पुत्रहीन होने से वह सदैव पुत्र वियोग में दुखी रहता था !!!ज़रा सोचिये की जब गौ माता को केवल पानी पीने से रोकने पर पुत्रहीनता का दुःख झेलना पड़ता है ,,,तब गौ माता के रक्त बहाने वालों के लिए कितने भयंकर दंड मिलने वाले हैं !!!!!!!

*****पुत्रदा एकादशी व्रत***
हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है।श्रावण शुक्ल एकादशी का नाम पुत्रदा है। उसकी कथा को सुनने मात्र से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है।
********कथा******
एक बार की बात है, श्री युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवान! श्रावण शुक्ल एकादशी का क्या नाम है? व्रत करने की विधि तथा इसका माहात्म्य कृपा करके कहिए। मधुसूदन कहने लगे कि इस एकादशी का नाम पुत्रदा है। अब आप शांतिपूर्वक इसकी कथा सुनिए। इसके सुनने मात्र से ही वायपेयी यज्ञ का फल मिलता है।
द्वापर युग के आरंभ में महिष्मति नाम की एक नगरी थी, जिसमें महीजित नाम का राजा राज्य करता था, लेकिन पुत्रहीन होने के कारण राजा को राज्य सुखदायक नहीं लगता था। उसका मानना था कि जिसके संतान न हो, उसके लिए यह लोक और परलोक दोनों ही दु:खदायक होते हैं। पुत्र सुख की प्राप्ति के लिए राजा ने अनेक उपाय किए परंतु राजा को पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई।
वृद्धावस्था आती देखकर राजा ने प्रजा के प्रतिनिधियों को बुलाया और कहा- हे प्रजाजनों! मेरे खजाने में अन्याय से उपार्जन किया हुआ धन नहीं है। न मैंने कभी देवताओं तथा ब्राह्मणों का धन छीना है। किसी दूसरे की धरोहर भी मैंने नहीं ‍ली, प्रजा को पुत्र के समान पालता रहा। मैं अपराधियों को पुत्र तथा बाँधवों की तरह दंड देता रहा। कभी किसी से घृणा नहीं की। सबको समान माना है। सज्जनों की सदा पूजा करता हूँ। इस प्रकार धर्मयुक्त राज्य करते हुए भी मेरे पु‍त्र नहीं है। सो मैं अत्यंत दु:ख पा रहा हूँ, इसका क्या कारण है?

राजा महीजित की इस बात को विचारने के लिए मं‍त्री तथा प्रजा के प्रतिनिधि वन को गए। वहाँ बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों के दर्शन किए। राजा की उत्तम कामना की पूर्ति के लिए किसी श्रेष्ठ तपस्वी मुनि को देखते-फिरते रहे। एक आश्रम में उन्होंने एक अत्यंत वयोवृद्ध धर्म के ज्ञाता, बड़े तपस्वी, परमात्मा में मन लगाए हुए निराहार, जितेंद्रीय, जितात्मा, जितक्रोध, सनातन धर्म के गूढ़ तत्वों को जानने वाले, समस्त शास्त्रों के ज्ञाता महात्मा लोमश मुनि को देखा, जिनका कल्प के व्यतीत होने पर एक रोम गिरता था।

सबने जाकर ऋषि को प्रणाम किया। उन लोगों को देखकर मुनि ने पूछा कि आप लोग किस कारण से आए हैं? नि:संदेह मैं आप लोगों का हित करूँगा। मेरा जन्म केवल दूसरों के उपकार के लिए हुआ है, इसमें संदेह मत करो।
लोमश ऋषि के ऐसे वचन सुनकर सब लोग बोले- हे महर्षे! आप हमारी बात जानने में ब्रह्मा से भी अधिक समर्थ हैं। अत: आप हमारे इस संदेह को दूर कीजिए। महिष्मति पुरी का धर्मात्मा राजा महीजित प्रजा का पुत्र के समान पालन करता है। फिर भी वह पुत्रहीन होने के कारण दु:खी है।
उन लोगों ने आगे कहा कि हम लोग उसकी प्रजा हैं। अत: उसके दु:ख से हम 
यह वार्ता सुनकर ऋषि ने थोड़ी देर के लिए नेत्र बंद किए और राजा के पूर्व जन्म का वृत्तांत जानकर कहने लगे कि यह राजा पूर्व जन्म में एक निर्धन वैश्य था। निर्धन होने के कारण इसने कई बुरे कर्म किए। यह एक गाँव से दूसरे गाँव व्यापार करने जाया करता था। एक समय ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी के दिन मध्याह्न के समय वह जबकि वह दो दिन से भूखा-प्यासा था, एक जलाशय पर जल पीने गया। उसी स्थान पर एक तत्काल की ब्याही हुई प्यासी गौ जल पी रही थी।
राजा ने उस प्यासी गाय को जल पीते हुए हटा दिया और स्वयं जल पीने लगा, इसीलिए राजा को यह दु:ख सहना पड़ा। एकादशी के दिन भूखा रहने से वह राजा हुआ और प्यासी गौ को जल पीते हुए हटाने के कारण पुत्र वियोग का दु:ख सहना पड़ रहा है। ऐसा सुनकर सब लोग कहने लगे कि हे ऋषि! शास्त्रों में पापों का प्रायश्चित भी लिखा है। अत: जिस प्रकार राजा का यह पाप नष्ट हो जाए, आप ऐसा उपाय बताइए।
उद्देश्य
लोमश मुनि कहने लगे कि श्रावण शुक्ल पक्ष की एकादशी को जिसे पुत्रदा एकादशी भी कहते हैं, तुम सब लोग व्रत करो और रात्रि को जागरण करो तो इससे राजा का यह पूर्व जन्म का पाप अवश्य नष्ट हो जाएगा, साथ ही राजा को पुत्र की अवश्य प्राप्ति होगी। लोमश ऋषि के ऐसे वचन सुनकर मंत्रियों सहित सारी प्रजा नगर को वापस लौट आई और जब श्रावण शुक्ल एकादशी आई तो ऋषि की आज्ञानुसार सबने पुत्रदा एकादशी का व्रत और जागरण किया।


भी दु:खी हैं। आपके दर्शन से हमें पूर्ण विश्वास है कि हमारा यह संकट अवश्य दूर हो जाएगा क्योंकि महान पुरुषों के दर्शन मात्र से अनेक कष्ट दूर हो जाते हैं। अब आप कृपा करके राजा के पुत्र होने का उपाय बतलाएँ।
इसके पश्चात द्वादशी के दिन इसके पुण्य का फल राजा को दिया गया। उस पुण्य के प्रभाव से रानी ने गर्भ धारण किया और प्रसवकाल समाप्त होने पर उसके एक बड़ा तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ।

महिमा
इसलिए हे राजन! इस श्रावण शुक्ल एकादशी का नाम पुत्रदा पड़ा। अत: संतान सुख की इच्छा हासिल करने वाले इस व्रत को अवश्य करें। इसके माहात्म्य को सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है और इस लोक में संतान सुख भोगकर परलोक में स्वर्ग को प्राप्त होता है।
पुत्रदा एकादशी पौषशुक्ल मेँ भी पडती है!!!!!!!!!

हनुमान चालीसा और पृथ्वी से सूर्य की दुरी

"जुग सहस्त्र योजन पर भानु 
लील्यो ताहि मधुर फल जानू ।।"



एक महत्वपूर्ण तथ्य जो प्रमाणित करता है कि पृथ्वी और सूर्य के मध्य की दूरी न्यूटन से पहलेतुलसीदास जी ने वर्णित किया है 

अर्थात हनुमान जी ने 15,36,00,000 (पंद्रह करोड़ छतीस लाख ) किलो मीटर पृथ्वी से दूरी पे सूर्य कोमधुर (मीठाफल जानकार लील्यो (निगल लिया

युग शब्द चार के अर्थ में प्रयुक्त होता है

सतयुग दिव्य वर्ष में 4800 वर्ष सौर वर्षों में 1728000 वर्ष
त्रेतायुग दिव्य वर्ष में 3600 वर्ष सौर वर्षों में 1296000 वर्ष
द्वापरयुग दिव्य वर्ष में 2400 वर्ष सौर वर्षों में 864000 वर्ष
कलियुग दिव्य वर्ष में 1200 वर्ष सौर वर्षों में 432000 वर्ष 

चतुर्युग का मान सौर वर्षों में अधिकाँश व्यक्ति जानते हैं  किन्तु चतुर्युग का मान

दिव्य वर्षों में 12000 है        एक जुग 12000  वर्ष 

12000 (जुग) X 1000 (सहस्त्र) X 8 (1 योजन = 8 मील) = 9,60,00,000 मील
9,60,00,000 मील X 1.6 (1 मील = 1.6 किलो मीटर)= 15,36,00,000 किलो मीटर

हम जानते हैं कि पृथ्वी की दूरी लगभग  15,00,00,000 (पंद्रह करोड़ किलो मीटरहै 

जब कि तुलसीदास जी ने बड़ी सरलता से महज चार लाईन में ये दूरी बता दी थी